
डॉ विजय गर्ग
आज की दुनिया में, जहाँ तकनीक ने हमारे जीवन के हर पहलू को छू लिया है, वहीं सोशल मीडिया एक ऐसी ताकत बनकर उभरा है जिसने मनोरंजन और सूचना के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया है। लेकिन, इंस्टाग्राम , फेसबुक और खास तौर पर रील्स का बढ़ता चलन अब एक ‘नए नशे’ के रूप में देखा जा रहा है। यह नशा किसी मादक पदार्थ की तरह ही हमारे दिमाग और व्यवहार पर गहरा असर डाल रहा है।
आखिर क्यों बन रहा है यह ‘नशा’?
रील्स और शॉर्ट वीडियो का फॉर्मेट हमारी तुरंत संतुष्टि की ज़रूरत को पूरा करता है। इसके पीछे का विज्ञान “डोपामाइन नामक हॉर्मोन से जुड़ा है:
* डोपामाइन रश: हर नई रील, लाइक या कमेंट पर हमारे दिमाग में डोपामाइन तेज़ी से निकलता है, जो हमें खुशी और इनाम की अनुभूति कराता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा शराब या जुए की लत में होता है।
* अनंत स्क्रॉलिंग : सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि एक के बाद एक वीडियो आते रहते हैं, जिससे “और देखने” की लालसा बनी रहती है और हम समय की परवाह किए बिना घंटों स्क्रॉल करते रहते हैं।
* फ़ोमो : दूसरों की ‘परफेक्ट’ लाइफस्टाइल, यात्रा या उपलब्धियों को देखकर मन में यह डर बैठ जाता है कि कहीं हम कुछ मिस न कर दें, जिससे बार-बार ऐप्स चेक करने की आदत पड़ जाती है।
📉 जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव
यह ‘डिजिटल नशा’ सिर्फ समय की बर्बादी नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी और गंभीर परिणाम होते हैं:
* मानसिक स्वास्थ्य पर असर:
* तनाव और अवसाद ): खुद की तुलना वीडियो में दिखने वाले लोगों से करने पर हीन भावना और निराशा पैदा होती है।
* एकाग्रता की कमी: लगातार शॉर्ट और तेज़-तर्रार कंटेंट देखने से हमारी एकाग्रता की क्षमता कम होती है, जिससे पढ़ाई या काम पर ध्यान लगाना मुश्किल हो जाता है। इसे डिजिटल डिमेंशिया तक कहा जा रहा है।
* शारीरिक स्वास्थ्य पर असर:
* नींद की समस्या: रात को देर तक रील्स देखने से नींद का चक्र बिगड़ता है।
* निष्क्रियता: लंबे समय तक एक ही जगह बैठे रहने से मोटापा और अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं।
* सामाजिक और व्यावहारिक बदलाव:
* रिश्तों में दूरी: वास्तविक जीवन के संवाद और रिश्तों पर ध्यान कम हो जाता है, जिससे परिवार और दोस्तों के साथ संबंधों में तनाव आता है।
* जानलेवा स्टंट: लाइक और व्यूज़ की चाहत में युवा खतरनाक और जान जोखिम में डालने वाले स्टंट करने लगते हैं।
* उत्पादकता का नुकसान:
* युवाओं का कीमती समय जो शिक्षा, कौशल विकास या रोजगार जैसे ज़रूरी सवालों पर लगना चाहिए, वह मनोरंजन और स्क्रॉलिंग में बर्बाद होता है।
✨ समाधान की ओर: डिजिटल डिटॉक्स
इस ‘नशे’ से निकलने के लिए ज़रूरी है कि हम आत्म-नियंत्रण और डिजिटल डिटॉक्स को अपनाएं:
* समय सीमा तय करें: मोबाइल में मौजूद स्क्रीन टाइम फीचर का इस्तेमाल करके ऐप्स के लिए समय निर्धारित करें।
* वैकल्पिक गतिविधियों को अपनाएं: खाली समय में किताबें पढ़ें, आउटडोर गेम्स खेलें या कोई नया कौशल सीखें।
* नोटिफिकेशन बंद करें: अनावश्यक नोटिफिकेशनों को बंद कर दें ताकि बार-बार फोन देखने की आदत कम हो।
* सोने से पहले दूरी: सोने से कम से कम एक घंटा पहले मोबाइल को खुद से दूर रखें।
निष्कर्ष के तौर पर, इंस्टाग्राम, फेसबुक और रील्स जैसे प्लेटफॉर्म मनोरंजन के अच्छे साधन हो सकते हैं, लेकिन जब ये ‘नशे’ में बदल जाते हैं तो ये हमारी सेहत, रिश्तों और भविष्य को बर्बाद कर सकते हैं। 21वीं सदी में हमें इस नए खतरे को पहचानना होगा और डिजिटल दुनिया में रहते हुए भी संतुलन बनाना सीखना होगा।
समाधान और सुझाव
व्यक्तिगत स्तर पर
समय-सीमा तय करें: दिन में कितने घंटे सोशल-मीडिया इस्तेमाल करेंगे।
स्क्रीन-फ्री समय रखें — शाम को मोबाइल- इस्तेमाल कम करें, पढ़ाई-मिलन के लिए समय दें।
नोटिफिकेशन नियंत्रण करें — अनावश्यक जानकारी बंद करें ताकि बार-बार चेक करने का लालच कम हो।
वास्तविक मिलन-जुलन बढ़ाएँ — मित्र-परिवार के साथ आमने-सामने बातचीत, खेल-कूद, हौबीज।
यदि लगता हो कि कंट्रोल खो रहा है, तो पेशेवर मदद लें — साइकोलॉजिस्ट-काउंसलिंग उपयुक्त हो सकती है।
पारिवारिक/शैक्षणिक स्तर पर
माता-पिता-शिक्षक-बच्चों में संवाद बढ़ाएँ — सोशल-मीडिया के लाभ-हानि पर खुलकर चर्चा करें।
स्कूल-कॉलेज में डिजिटल नागरिक शिक्षा शामिल करें — कि कैसे सोशल-मीडिया सुरक्षित, संतुलित रूप से इस्तेमाल करें।
परिवार में रात-का समय-मोबाइल-मुक्त रखें — उदाहरण-स्वरूप, भोजन-के समय-स्क्रीन बंद।
नीति-निर्माता/प्रौद्योगिकी-स्तर पर
प्लेटफॉर्म्स को डिजाइन-दृष्टि से समीक्षा करनी होगी — जैसे कि यूज़र इंगेजमेंट बढ़ाने के बजाय यूज़र वेल-बीइंग पर ध्यान देना।
सरकार-संस्थान सामाजिक-मीडिया लत पर रिसर्च, नीति, मैनुअल्स बनाएं — जैसे PGI मामला।
समाज में जागरूकता अभियान चलाएं — सोशल-मीडिया-उपयोग के खतरे व संतुलन के बारे में।
भारत जैसे देश में, जहां युवा जनसंख्या बड़ी है और स्मार्टफोन-उपयोग तेजी से बढ़ रहा है, यह विषय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हमें यह समझना होगा कि सोशल-मीडिया खुद बुरा नहीं — बल्कि अनियंत्रित, असमझ उपयोग हमें परेशान कर सकता है। हममें-से हर एक-व्यक्ति, परिवार और समाज को मिलकर इस “डिजिटल नशे” की दिशा में सतर्क रहना है, संतुलित उपयोग अपनाना है, और आवश्यक हूं तो मदद लेने से नहीं डरना है।
डॉ विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब






