कहानी: यादों की छांव में

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किशन लाल शर्मा (विनायक फीचर्स)
पुणे रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में रमन बैठा था। वह एक मीटिंग से वापस लौट रहा था। बाहर बारिश की हल्की हल्की बूंदे गिर रही थी। तभी दरवाजा खुला और एक औरत ने प्रवेश किया। रमन ने उसकी तरफ देखा।
जाना पहचाना चेहरा और वो ही आंखे बस समय ने कुछ रेखाएं खींच दी थी। और उस औरत को देखते ही रमन क़े होठों पर नाम उभरा था। नीरा…..
रमन तुम ? अपना नाम सुनकर नीरा एक क्षण को ठिठकी फिर उसे पहचानते हुए बोली। दोनों एक पल ऐसे ही एक दूसरे को देखते रहे और तीस साल पहले का अतीत उनकी आंखों क़े सामने घूम गया। कॉलेज की कैंटीन। उस दिन भी हमेशा की तरह चहल पहल भरी थी। हवा में उबलती चाय की महक थी। दीवारों पर पुराने पोस्टरों की रंगहीन छाया और मेजों पर चाय के प्यालों के बीच रखी किताबें। रमन कैंटीन में एक कोने में बैठा था, अपने में खोया। उसके सामने रखे चाय के कप से उठती भाप धीरे धीरे गायब हो रही थी। समय की तरह जो कभी ठहरता नहीं। वह पढ़ाई कर रहा था और नौकरी के सपनों में डूबा था। फिर भी मन किसी अनजानी बेचैनी से भरा था। मानो कुछ अधूरा हो,अनकहा जो भीतर ही भीतर दस्तक दे रहा था।
उसी समय एक छरहरे शरीर की लडक़ी ने कैंटीन में प्रवेश किया। हल्के नीले रंग का सलवार सूट, कंधे पर किताबों का थैला और चेहरे पर एक अजीब सी शांति। उसकी आँखों मे आत्मविश्वास था और होठों पर मुस्कान की झिलमिलाहट उसने नजरें घुमाकर चारों ओर देखा, फिर रमन की मेज के पास आकर धीमे स्वर में पूछा-
क्या मैं यहां बैठ सकती हूं?, रमन ने सकुचाकर कहा- क्यों नहीं,जरूर। और कुछ देर तक दोनों के बीच मौन छाया रहा उस मौन को तोडऩे की पहल उस लडक़ी ने की,तुम्हारा नाम? ,रमन वह बोला,और तुम्हारा? नीरा। उस दिन दोनों का परिचय हुआ। नीरा समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रही थी और रमन व्यापार प्रबंधन में। उन दोनों के उद्देश्य अलग जरूर थे, लेकिन जीवन के प्रति जिज्ञासा एक सी।
उस दिन दोनों के बीच कोई खास बात नहीं हुई,पर दोनों क़े बीच एक न दिखाई देने वाली डोर बंध गयी।
धीरे धीरे उन दोनों की मुलाकातें बढ़ी। कभी वे लाइब्रेरी में, कभी कॉलेज के गार्डन में, कभी कैंटीन में,कभी शहर के किसी कैफे या गार्डन में….. वे बातों से अधिक खामोशियों से जुड़ते थे। नीरा क़े विचारों की गहराई उसे आकर्षित करती थी। उसकी बातें किताबों जैसी लगती,गम्भीर पर दिल में उतर जाने वाली, और समय गुजर जाने के बाद रमन को महसूस होने लगा कि यह दोस्ती नहीं कुछ और हैं। नीरा की मुस्कान, उसका बोलने का ढंग, उसकी दृष्टि-सब उसे खींचते जा रहे थे। रात दिन उसकी सोच में बस नीरा ही रहती। वह जान चुका था कि यह प्रेम है, और अब वह इसे शब्द देना चाहता था,पर वह हिचक भी रहा था। मन में उसके डर था कहीं यह स्वीकारोक्ति उस निर्मल सम्बन्ध को तोड़ न दे, और धीरे धीरे न जाने कब समय गुजर गया,पता ही न चला।कॉलेज का अंतिम सप्ताह,सभी अपनी अपनी दिशा में जाने की तैयारी कर रहे थे।
उसी शाम जब कॉलेज गार्डन के बरगद के पेड़ के नीचे, जब सूरज ढलने को था और आसमान में सुनहरी छाया फैल रही थी। नीरा और रमन उस पेड़ के नीचे बैठे थे। तब रमन ने साहस जुटाया और बोला,नीरा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।
नीरा ने चिर परिचित मुस्कान के साथ स्वीकृति की नजरों से उसकी ओर देखा। रमन ने धीमे स्वर में कहा,मुझे तुमसे प्यार हो गया है। मैं तुम्हे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता हूँ। मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। रमन की बात सुनकर कुछ क्षण तक नीरा के चेहरे पर कोई भाव नहीं उभरा। हवा भी जैसे थम सी गयी थी। फिर उसने बहुत शांत स्वर में कहा,रमन मैं अभी शादी के बारे में नहीं सोच रही। मुझे अभी अपने जीवन को समझना है, खुद को तलाशना है मैं अपने सपनों को अकेले ही पूरा करना चाहती हूं।
उसके शब्दों में कोई कठोरता नहीं, बस एक निश्चय, दृढ़ता थी जो रमन के दिल में गूंजती रही। उस दिन देर तक दोनों बैठे रहे पर फिर कुछ बोले नहीं। फिर नीरा उठी और बिना पीछे देखे चली गईं।
कॉलेज खत्म हुआ और जिंदगी की राहें अलग अलग हो गई, और तीस साल का लंबा अंतराल। रमन और नीरा के शरीर में काफी बदलाव आ गए थे। दोनों का जब आमना सामना हुआ तो वे दोनों ही आश्चर्यचकित थे। उन्हें विश्वास ही नहीं था कि कभी फिर उनकी मुलाकात होगी भी।
नीरा ने रमन को देखा और मुस्करा दी,वही चिर परिचित मुस्कान। दोनों कुछ पल यूं ही देखते रहे मानों तीस वर्ष पिघलकर उसी क्षण में सिमट गए हो। फिर दोनों में बातचीत होने लगी।
कॉलेज के दिनों की, प्रोफेसरों की, साथियों की और उन दिनों के छोटे छोटे प्रसंग याद करने लगे। फिर नीरा ने अचानक पूछा,आजकल कहाँ हो, क्या काम कर रहे हो? मुम्बई में बैंक में मैनेजर हूँ,रमन अपने बारे में बताते हुए बोला,और तुम? बिलासपुर में संस्था चलाती हूँ, आदिवासी लड़कियों और महिलाओं के लिए काम करती हूँ। अपने बारे में बताते हुए नीरा बोली,तुम यहाँ कैसे? यहाँ पर एक सेमिनार था, उसी में आया था,रमन बोला,और तुम?
मैं भी यहां एक कार्यक्रम में आयी थी।। और वे बाते करते रहे और फिर बात आई उस प्रश्न पर जो कभी अधूरा रह गया था। रमन ने पूछा,शादी की? नीरा ने सिर झुका लिया,नहीं। फिर हल्के से मुस्कराई,और तुमने?, रमन ने भी कहा,,नहीं। नीरा ने चौंकते हुए उसे देखा,क्यों?, रमन ने गहरी सांस लीक्योंकि तुमने मना कर दिया था। मैंने मना कर दिया था तो क्या, किसी और से कर लेते। प्यार तो तुमसे हुआ था,रमन बोला,मेरे दिल में तुम बसी थी किसी और को कैसे बसा लेता। नीरा की आंखों में नमी उतर आई, फिर कहा,काश मै उस समय तुम्हारे दिल की बात समझ पाती। मैं शायद डर गई थी। दुनिया से, खुद से और रिश्ते की जिम्मेदारी से। मैं बस भागती रही, तभी ट्रेन आने की उद्घोषणा हुई। नीरा का चेहरा शांत था, पर आंखे बोल रही थी। बहुत कुछ जो शब्दों में नहीं था।
वह उठी, बैग कंधे पर लटकाया और दरवाजे की तरफ बढ़ी। फिर अचानक पलटी और बोली-रमन, कुछ प्रेम कहानियां पूरी नहीं होती क्योंकि अगर पूरी हो जाये तो इतनी खूबसूरत न लगें।

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