आमोदानंद
“शून्यात आरभ्य शून्यं विलीनं कृत्वा जीवनम् अस्ति”
यह पंक्ति जीवन के उस गहन दर्शन को उद्घाटित करती है, जिसे समझ लेने के बाद मनुष्य के अनेक प्रश्न स्वतः शांत हो जाते हैं। यह जीवन शून्य से आरंभ होकर शून्य में विलीन हो जाने वाली एक यात्रा है। न आगमन स्थायी है, न प्रस्थान—स्थायी है तो केवल यात्रा।
मनुष्य जन्म के समय खाली हाथ आता है। न पद, न प्रतिष्ठा, न धन, न अहंकार। जीवन के पहले क्षण में वह केवल श्वास है—एक संभावना। यही शून्य उसका आरंभ है। समय के साथ वह नाम, पहचान, संबंध, उपलब्धियाँ और अपेक्षाएँ जोड़ता चला जाता है। धीरे-धीरे यह शून्य बोझिल होता जाता है।
परंतु जीवन का अंतिम सत्य यह है कि अंत में सब कुछ छूट जाता है। वही धन, वही पद, वही संबंध—सब यहीं रह जाते हैं। मनुष्य फिर उसी शून्य में विलीन हो जाता है, जहाँ से वह चला था। इस दृष्टि से देखा जाए तो जीवन संग्रह की नहीं, समझ की यात्रा है।शून्य का भय और शून्य का सौंदर्य ही सार है।
अधिकांश लोग शून्य से डरते हैं। उन्हें लगता है कि शून्य का अर्थ है अभाव, नष्ट होना, समाप्ति। जबकि भारतीय दर्शन में शून्य का अर्थ पूर्णता है—जहाँ कुछ भी खोता नहीं, बल्कि सब कुछ समाहित हो जाता है। शून्य वह आकाश है, जिसमें सब संभव है।जब मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि अंत में उसे शून्य में ही लौटना है, तो जीवन की दौड़ स्वतः धीमी हो जाती है। फिर तुलना का विष कम हो जाता है, अहंकार ढीला पड़ जाता है और करुणा जन्म लेती है।
जीवन : उपलब्धि नहीं, अनुभव
यदि जीवन शून्य से शून्य तक की यात्रा है, तो बीच का समय क्या है?
वह समय है अनुभव का, सीख का, संवेदना का।
जीवन का उद्देश्य केवल “कुछ बन जाना” नहीं, बल्कि कुछ समझ जाना है।सफल वही है जो अंत से पहले यह जान ले कि क्रोध व्यर्थ था संग्रह अनावश्यक था प्रेम ही सार था।
यह जीवन न तो जीतने की वस्तु है, न हारने की।यह तो शून्य से निकली एक तरंग है, जो शून्य में ही शांत हो जाती है।जो यह समझ लेता है, वह जीवन को हल्के मन से जीता है,
और जो नहीं समझ पाता, वह भारी बोझ के साथ शून्य में लौट जाता है।
शून्य से शुरू होकर शून्य में विलीन होना यही जीवन है, और यही उसका सबसे बड़ा सौंदर्य।

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