– राज्य सरकार की उदासीनता और निगरानी तंत्र की कमजोरी से बढ़ रही स्वास्थ्य-माफियागिरी
शरद कटियार
लखनऊ: राज्य में निजी अस्पतालों (private hospitals) की मनमानी अब आम मरीजों के लिए एक आर्थिक आपदा बन चुकी है। मरीजों (patients) से इलाज के नाम पर मोटी रकम वसूली जा रही है, जबकि सरकार का नियामक तंत्र केवल फाइलों में सक्रिय दिखता है। आंकड़े बताते हैं कि केवल पिछले एक वर्ष में उत्तर प्रदेश के प्रमुख जिलों में निजी अस्पतालों के खिलाफ 3700 से अधिक बिलिंग-ओवरचार्जिंग की शिकायतें दर्ज की गईं, लेकिन कार्रवाई के मामलों की संख्या 20 प्रतिशत से भी कम रही। स्वास्थ्य विभाग ने कुछ मामलों में जवाब-तलब के नोटिस जारी किए, पर किसी अस्पताल का लाइसेंस अब तक रद्द नहीं हुआ।
नोएडा, लखनऊ, वाराणसी, गोरखपुर और कानपुर जैसे शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण तेजी से बढ़ा है। मरीजों का आरोप है कि अस्पताल बिना पूर्व सूचना के पैकेज बदल देते हैं और दवाओं-जांचों के नाम पर कुल बिल को 2 से 3 गुना तक बढ़ा देते हैं। एक सरकारी सर्वे में पाया गया कि हर 10 में से 8 अस्पताल निर्धारित दरों से ज्यादा चार्ज लेते हैं। कोविड-काल में हुई शिकायतों का विश्लेषण बताता है कि 82% मामलों में ओवरचार्जिंग की पुष्टि हुई थी।
राज्य स्वास्थ्य विभाग का ‘क्लिनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट’ कागजों पर तो सक्रिय है, लेकिन जमीन पर कठोर निरीक्षण और ऑडिट की प्रक्रिया नगण्य है। अधिकतर निजी अस्पताल दर सूची प्रदर्शित नहीं करते, और कई बार मरीजों को बिल का पूरा ब्रेकडाउन भी नहीं दिया जाता।
स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. मनीष अवस्थी कहते हैं —
“सरकार ने मरीजों के हित में दर-निर्धारण तो किया, लेकिन उसका पालन कराने की जिम्मेदारी तय नहीं की। नतीजा यह है कि अस्पताल अब ‘मुनाफे के केंद्र’ बन गए हैं।”
महाराष्ट्र में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, 120 में से 99 अस्पतालों ने सरकारी पैकेज से अधिक शुल्क वसूला।
पश्चिम बंगाल में 2025 के शुरुआती पांच महीनों में दर्ज हुई 90% शिकायतें निजी अस्पतालों की बिलिंग से जुड़ी थीं।
उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य मंत्रालय के पास आई कुल शिकायतों में से एक-तिहाई केवल निजी अस्पतालों के दुरुपयोग से संबंधित थीं।
राज्य स्वास्थ्य विभाग का दावा है कि प्रत्येक जिले में शिकायत-निवारण सेल गठित हैं और नियमों का उल्लंघन करने वाले अस्पतालों को नोटिस भेजे जा रहे हैं। हालाँकि, स्वास्थ्य अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि “कार्रवाई का प्रतिशत नगण्य है और मरीज-परिवारों को राहत नहीं मिल पा रही।” मरीजों ने सरकार से अपील “स्वास्थ्य को व्यवसाय नहीं, अधिकार माना जाए”कई संगठनों ने मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर माँग की है कि निजी अस्पतालों में इलाज दरें सार्वजनिक की जाएँ, सभी बिल डिजिटल रूप में जारी हों और प्रत्येक जिले में ‘हेल्थ प्राइस कंट्रोल यूनिट’ गठित की जाए।
मंच के संयोजक प्रभाकर त्रिपाठी का कहना है —
“अस्पतालों की मनमानी पर अंकुश के बिना स्वास्थ्य सेवा कभी जनसेवा नहीं बन सकती। सरकार को अब दिखावे की नहीं, दृढ़ कार्रवाई की ज़रूरत है।”
निजी अस्पतालों की बेलगाम फीस और सरकारी चुप्पी ने आम जनता की परेशानी बढ़ा दी है। जहाँ एक ओर सरकारी अस्पताल संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर निजी अस्पताल “बीमारी से मुनाफा कमाने के केंद्र” बन गए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अब समय आ गया है कि राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवा को व्यवसाय नहीं, संवैधानिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित करे।


