अशोक भाटिया , मुंबई
2 वर्ष के बाद फिर छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों ने दोबारा सर उठाया है। नक्सलियों द्वारा किए जाने वाले बड़े हमलों में अंतिम बार छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 26 अप्रैल, 2023 को 10 जवान मारे गए थे। इसके बाद सोमवार दोपहर नक्सलियों द्वारा किये गए अब यह दूसरा और इस साल का पहला सबसे बड़ा हमला है जिसमें बीजापुर के आईईडी ब्लास्ट में आठ जिला रिजर्व गार्ड और एक ड्राइवर की मौत हो जाने के तुरंत बाद इस संवेदनशील मामले में उच्च स्तरीय मीटिंग जारी है । मामले को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी और अन्य संबंधित फोर्स के चीफ भी सक्रीय हो गए है । अब सुरक्षाबल इसका जवाब देने की तैयारी कर रहे हैं।यह ठीक है कि केंद्र सरकार ने यह संकल्प ले रखा है कि मार्च 2026 तक नक्सलवाद को समाप्त कर दिया जाएगा, लेकिन इस लक्ष्य की प्राप्ति को सुनिश्चित करते हुए यह भी देखा जाना जरूरी है कि आखिर नक्सलियों को आधुनिक हथियार और विस्फोटक कहां से मिल रहे हैं? गत दिवस उन्होंने जिस विस्फोटक का इस्तेमाल कर डीआरजी की गाड़ी को निशाना बनाया, वह इतना शक्तिशाली था कि जवानों के चिथड़े उड़ गए और वाहन के परखच्चे उड़कर पेड़ पर जा टंगे।
यदि यह मान लिया जाए कि नक्सली उगाही और वन संपदा के दोहन के जरिये पैसा जुटा लेते हैं, तो भी प्रश्न यह उठता है कि आखिर वे आधुनिक हथियार कहां से हासिल कर ले रहे हैं? यह तो सामने आता ही नहीं कि उन्हें घातक हथियारों की आपूर्ति कौन करता है? आखिर क्या कारण है कि तमाम नक्सलियों को मार गिराने और उनके गढ़ माने जाने वाले इलाकों में विकास के तमाम कार्यक्रम संचालित किए जाने के बाद भी उनकी ताकत कम होने का नाम नहीं ले रही है? नक्सली अपने खिलाफ जारी अभियान के बीच जिस तरह रह-रहकर सुरक्षा बलों को निशाना बनाने और उन्हें क्षति पहुंचाने में समर्थ हो जाते हैं, वह चिंता का कारण है। नक्सली गुटों में भर्ती होने वालों की उल्लेखनीय कमी न आने से यह भी लगता है कि आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों के बीच उनकी पकड़ अभी इतनी ढीली नहीं पड़ी है कि उनकी जड़ें उखड़ती दिखें।
ऐसे में उनके खिलाफ सुरक्षा बलों के अभियान को और धार देने के साथ ही उन कारणों का पता लगाकर उनका निवारण करना भी जरूरी है, जिनके चलते वे लोगों का समर्थन हासिल करने में समर्थ हैं। निःसंदेह नक्सलवाद एक विषैली-विजातीय विचारधारा है, लेकिन नक्सलियों को जड़-मूल से समाप्त करने के लिए उनसे विचारधारा के स्तर पर भी लड़ा जाना आवश्यक है। इससे ही नक्सलियों और उन्हें वैचारिक खुराक देने वालों के इस झूठ का पर्दाफाश किया जा सकता है कि वे वंचितों के उन अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं, जो उनसे छीने जा रहे हैं। इस झूठ को बेनकाब करने के लिए यह भी जरूरी है कि आदिवासियों के नैसर्गिक अधिकार बाधित न होने पाएं। इससे ही उनका भरोसा हासिल किया जा सकता है और उन्हें नक्सलियों से दूर किया जा सकता है।
गौरतलब है कि देश के कुछ राज्यों में नक्सलवाद की समस्या नासूर बन चुका है।खासकर छत्तीसगढ़ । छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर माना जाता है । बस्तर के लोग अपनी संस्कृति और विशेष परंपराओं के निर्वहन के लिए जाने जाते हैं।कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने खुशहाल जीवन जीने के लिए स्वयं को प्रकृति के अनुकूल बनाए रखा, अपने को संभाले रखा, लेकिन पिछले कुछ दशक पहले उनके खुशहाल जीवन को नक्सलियों की नजर लग गई, नाच-गाना बंद हो गया, मांदर की थाप मंद पड़ गई, सड़कें सूनी हो गई और स्कूल बंद होने लगे।स्थानीय हाट बाजार भी बंद हो गए, बस्तर के वनवासियों की जिंदगी धीरे-धीरे बेरंग हो गई। पिछले कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री विष्णु देव साय सरकार में यहां के लोगों के बीच एक उम्मीद जगी है कि अब नक्सलवाद खत्म होगा।
दरअसल, केंद्र और राज्य सरकार ने नक्सलवाद के खात्मे का संकल्प लेकर काम शुरू किया है। इससे लगने लगा कि बस्तर में अब धीरे-धीरे लोग हिंसा से मुक्ति पा रहे हैं। ये सच भी लगने लगा था क्योंकि पिछले 13 महीने की सरकार में नक्सली बैकफुट पर ही रहे। जवान नक्सलियों पर भारी पड़ते रहे।इसका जश्न भी बस्तर में देखने को मिला ,मगर नक्सलियों ने एक बार फिर कायराना हरकत करते बीजापुर में आठ जवानों को धात लगाकर मार दिया। इस बीच रक्षा विशेषज्ञ मान रहे हैं कि नक्सलियों पर नियंत्रण पाना उतना सरल नहीं है, जितना कि इसके लिए लक्ष्य का निर्धारण मार्च 2026 तक आसानी से कर लिया गया है।
ऐसे में सरकार को नक्सलियों को जड़ से उखाड़ने के लिए रणनीति में और बदलाव करने होंगे। इसके लिए दो रास्तों पर बराबर जोर देना होगा, या तो उनसे प्यार बातचीत का रास्ता प्रशस्त किया जाए या फिर वार से ही आर-पार की लड़ाई लड़कर निपटा जाए।विशेषज्ञों का मानना है कि नक्सलियों को मुख्य धारा में लाकर उनके लिए लागू होने जा रही पुनर्वास नीति के सफल क्रियान्वयन से नक्सलवाद को खुद हद तक समाप्त किया जा सकता है।ऐसा नहीं है कि इसके लिए पहले कभी प्रयास नहीं हुए हैं। इसके पहले भी सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद भी थोड़े-थोड़े समय पर ही नक्सली सक्रिय होकर सुरक्षा बलों को चुनौती देते रहे हैं, मगर कुछ न कुछ चूक की वजह से मिशन पूरा नहीं हो पाया है।पिछले वर्षों में भी सुरक्षाबलों, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों-कर्मचारियों और ग्रामीणों की हत्या करने का रिकार्ड नक्सलियों ने बना रखा है। ऐसे में नक्सलियों से पूरी तरह से निपटना अभी भी चुनौती बना हुआ है।
हालांकि इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता है कि प्रदेश में पिछले 13 महीने की मुख्यमंत्री विष्णु देव साय सरकार के नाम नक्सलवाद के खिलाफ चले अभियान में एतिहासिक उपलब्धि दर्ज हो चुकी है। इस समयावधि में विष्णु सरकार ने नक्सलवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में उल्लेखनीय प्रगति की है।इस दौरान 221 नक्सली मारे गए हैं, 925 नक्सलियों की गिरफ्तारियां हुई हैं और 738 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। यह कह सकते हैं कि नक्सली क्षेत्र में सक्रिय 1800 से अधिक नक्सली ठिकाने लग चुके हैं। ये निस्संदेह सुरक्षाबलों की बड़ी कामयाबी कही जा सकती है कि नक्सलियों को योजनाएं अंजाम देने से पहले ही मार गिराया गया, परन्तु अभी भी नक्सलियों के मनोबल को तोड़ने के लिए काम करने की दरकार है।बीजापुर की घटना इसकी तस्दीक कर रही है कि खूफिया तंत्र भी नक्सलियों के मूवमेंट पर सटीक जानकारी जुटाने में फेल साबित हुआ है। अभी भी प्रदेश में लगभग एक हजार नक्सलियों के सक्रिय होने की जानकारी है।खूफिया सूत्रों के अनुसार इन नक्सलियों का आत्मसमर्पण कराने, गिरफ्तार करने के बाद ही नक्सलवाद की लड़ाई जीती जा सकेगी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का मार्च 2026 तक नक्सलियों का सफाया करने का लक्ष्य पूरा हो सकेगा।
रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि नक्सली क्षेत्र में एक भी नक्सली नेता केंद्र और राज्य सरकार के नक्सल विरोधी मुहिम के लिए घातक हो सकता है, इसलिए हर नक्सली का खात्मा जरूरी है, ताकि नक्सलियों के संगठन को पूरी तरह से तोड़ा जा सके।बस्तर के आदिवासी युवा नक्सलियों के प्रति आकर्षित न हों, इसके लिए उतनी ही लड़ाई लड़ने की आवश्यकता है जितनी की नक्सलियों से बंदूक की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। नक्सली आदिवासी समूहों को यह कहकर अपनी ओर आकर्षित करते हैं कि सरकारें उनके संसाधनों पर पूंजीपतियों को कब्जा दिलाने का प्रयास करती हैं।
ऐसे में राज्य सरकार को चाहिए कि आदिवासी समुदाय को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए वहां औद्योगिक इकाइयों का विस्तार करे। यहां के युवाओं को नौकरी दे ताकि वह नक्सलियों के चंगुल में न फंस सकें। हालांकि हाल में ही राज्य सरकार ने बस्तर ओलिंपिक का आयोजन करके बस्तर के आदिवासियों युवाओं को जोड़ने का काम किया है।इस आयोजन का जिक्र देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी किया था। इसके बाद से यहां के युवाओं और जवानों में नए उत्साह का संचार हुआ है। इस तरह के आयोजन इस क्षेत्र में निरंतर होते रहना चाहिए। वहीं नक्सलियों को अत्याधुनिक सूचना प्रणाली, हेलीकाप्टर आदि के जरिए उन पर नकेल कसने की कोशिश निरंतर होनी चाहिए।
नक्सलियों पर पुलिसिया कार्यवाही के अलावा फंडिंग स्रोतों को भी तोड़ने की जरुरत है । फंडिंग स्रोतों के बारे में जिक्र होने पर उद्योगों से जबरन वसूली पर चर्चा होती रही है। बिहार और झारखंड में पिछले एक दशक के दौरान माओवादी संगठन के लोगों की गिरफ्तारियों के बाद यह बार बार दोहराया गया कि माओवाद प्रभावित इलाकों में जो कॉर्पोरेट बिज़नेस करते हैं, उनसे जबरन वसूली माओवादी संगठनों का बड़ा फंडिंग सोर्स रहा है। कॉर्पोरेट से भी ज़्यादा अहम उद्योग माइनिंग यानी उत्खनन का रहा है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में यह कारोबार नक्सलियों को ‘टैक्स’ दिए बगैर नहीं चलता। यही नहीं, यहां अवैध उत्खनन में भी नक्सलियों की बड़ी दखलंदाज़ी रही है। मार्च 2010 में संसद में केंद्रीय खनन मंत्री हांडीक ने बताया था कि देश भर में 1,61,040 अवैध माइन्स थीं, जिनमें से बड़ी संख्या छत्तीसगढ़, झारखंड व ओडिशा के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में थीं। समझा जा सकता है कि नक्सलियों की ज़बरदस्त फंडिंग का राज़ क्या रहा। ताज़ा जानकारियों की बात करें तो 2018 के आखिरी महीनों में नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी एनआईए ने बड़े खुलासे करते हुए बताया था कि छोटे और मझोले किस्म के नक्सली नेता अपने इलाकों के लोगों से भी जबरन वसूली करते रहे। यही नहीं, ये लोग को ऑपरेटिव सोसायटी और म्यूचुअल फंड्स में निवेश भी करते रहे। एनआईए के मुताबिक एक गिरफ्तार माओवादी के मामले में करीब 12 लाख रुपये का निवेश सहारा क्रेडिट को ऑपरेटिव सोसायटी में होना पाया गया था।