
डॉ विजय गर्ग
शिक्षा किसी भी समाज की रीढ़ होती है। यह न केवल व्यक्ति के ज्ञान और कौशल का विकास करती है, बल्कि समाज की सोच, दिशा और भविष्य को भी आकार देती है। लेकिन आज जब हम शिक्षा की सूरत पर नज़र डालते हैं, तो यह साफ़ दिखता है कि यह एक गहरे बदलाव के दौर से गुजर रही है—जहाँ उम्मीदें भी हैं, चुनौतियाँ भी और कई सवाल भी।
पारंपरिक शिक्षा से आधुनिकता तक
एक समय था जब शिक्षा का अर्थ किताब, गुरु और कक्षा तक सीमित था। अनुशासन, रटंत विद्या और परीक्षा ही सफलता का पैमाना माने जाते थे। आज शिक्षा का दायरा कहीं व्यापक हो चुका है।
डिजिटल क्लासरूम, ऑनलाइन पाठ्यक्रम, स्मार्ट बोर्ड और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे साधन शिक्षा को नई दिशा दे रहे हैं। अब सीखना केवल स्कूल या कॉलेज तक सीमित नहीं रहा, बल्कि घर, मोबाइल और लैपटॉप तक पहुँच चुका है।
तकनीक का बढ़ता प्रभाव
तकनीक ने शिक्षा को लोकतांत्रिक बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स ने दूर-दराज़ के छात्रों को भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच दी।
ई-लर्निंग, वीडियो लेक्चर और वर्चुअल लैब्स ने सीखने को अधिक रोचक और लचीला बनाया।
लेकिन इसके साथ ही डिजिटल डिवाइड की समस्या भी उभरी है। आज भी कई बच्चे ऐसे हैं जिनके पास इंटरनेट, स्मार्टफोन या उचित संसाधन नहीं हैं। ऐसे में तकनीक जहाँ कुछ के लिए वरदान है, वहीं दूसरों के लिए यह एक नई बाधा भी बन रही है।
शिक्षा और रोज़गार के बीच बढ़ता फासला
आज की शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह विद्यार्थियों को डिग्री तो दे रही है, लेकिन रोज़गार के लिए जरूरी कौशल नहीं दे पा रही।
किताबी ज्ञान और व्यावहारिक जीवन के बीच की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। इसी कारण बड़ी संख्या में शिक्षित युवा बेरोज़गार हैं।
अब ज़रूरत है ऐसी शिक्षा की जो कौशल आधारित, अनुभवात्मक और समस्या-समाधान केंद्रित हो।
शिक्षक की भूमिका में बदलाव
पहले शिक्षक ज्ञान का एकमात्र स्रोत होता था, आज वह एक मार्गदर्शक और मेंटर की भूमिका निभा रहा है।
तकनीक के युग में शिक्षक का काम केवल पढ़ाना नहीं, बल्कि विद्यार्थियों में सोचने की क्षमता, नैतिक मूल्य और जिज्ञासा विकसित करना भी है। इसके लिए शिक्षकों का निरंतर प्रशिक्षण और सम्मान बेहद ज़रूरी है।
मानसिक स्वास्थ्य और शिक्षा
प्रतिस्पर्धा, अंकों की दौड़ और करियर का दबाव आज के छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रहा है।
शिक्षा की सूरत तब तक पूरी नहीं बदल सकती जब तक वह बच्चों को केवल सफल ही नहीं, बल्कि संतुलित और संवेदनशील इंसान भी न बनाए। इसके लिए पाठ्यक्रम में जीवन कौशल, कला, खेल और मानसिक स्वास्थ्य को उचित स्थान देना आवश्यक है।
नई शिक्षा नीति और उम्मीदें
नई शिक्षा नीतियाँ बहुभाषी शिक्षा, रचनात्मक सोच, लचीलापन और स्थानीय संदर्भों पर ज़ोर देती हैं। यदि इन्हें ज़मीनी स्तर पर सही ढंग से लागू किया जाए, तो शिक्षा की सूरत वास्तव में बदल सकती है—ऐसी शिक्षा जो बोझ नहीं, बल्कि आनंद बने।
शिक्षा की सूरत आज एक चौराहे पर खड़ी है। एक ओर तकनीक, नवाचार और नए अवसर हैं, तो दूसरी ओर असमानता, बेरोज़गारी और मानसिक दबाव जैसी समस्याएँ।
ज़रूरत इस बात की है कि शिक्षा को केवल परीक्षा और नौकरी से जोड़कर न देखा जाए, बल्कि उसे मानव निर्माण की प्रक्रिया माना जाए। जब शिक्षा सोचने, समझने और समाज के लिए ज़िम्मेदार नागरिक बनाने लगेगी—तभी उसकी सूरत सच में संवर पाएगी।
सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब






