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Tuesday, December 23, 2025

अरावली की रक्षा में उठी नई चेतना: जब मशीन थमी और ज़मीर जागा

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अभिनय

भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में शामिल अरावली पहाड़ियां आज केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं रहीं, बल्कि यह सवाल बन चुकी हैं कि क्या विकास के नाम पर हम अपने भविष्य को खुद नष्ट करने पर आमादा हैं? वर्षों से अवैध खनन, निर्माण माफिया और सरकारी उदासीनता के बीच अरावली को लगातार छलनी किया जाता रहा। लेकिन अब जो हुआ है, उसने इस लड़ाई को एक नई नैतिक ऊंचाई पर पहुंचा दिया है।

अरावली में पहाड़ उखाड़ने से जेसीबी मशीन ऑपरेटरों का इनकार कोई साधारण घटना नहीं है। यह उस व्यवस्था के खिलाफ मौन विद्रोह है, जहां मजदूर को अक्सर केवल “आदेश मानने वाला पुर्जा” समझ लिया जाता है।

ऑपरेटरों ने आपसी एकता बनाकर यह साफ संदेश दिया है कि

“कोई भी अरावली को नुकसान पहुंचाने नहीं जाएगा।”

यह निर्णय इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि यह उन लोगों की ओर से आया है, जिनकी आजीविका सीधे तौर पर इन मशीनों से जुड़ी है। इसका अर्थ साफ है—अब पर्यावरण बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ एक्टिविस्ट, अदालत या अखबार नहीं उठा रहे, बल्कि ज़मीन पर काम करने वाला श्रमिक भी अपने विवेक के साथ खड़ा है।

अरावली को अक्सर पत्थरों की पहाड़ी समझ लिया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि यह उत्तर भारत का प्राकृतिक सुरक्षा कवच है।

अरावली—भूजल को रोककर रखती है,रेगिस्तान को फैलने से रोकती है,

दिल्ली-एनसीआर को प्रदूषण से आंशिक सुरक्षा देती है,

मौसम और जैव विविधता का संतुलन बनाए रखती है

जब अरावली काटी जाती है, तो केवल पत्थर नहीं टूटते, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की सांसें कम होती हैं।

अब “अरावली बचाओ अभियान” किसी एक संगठन या राज्य तक सीमित नहीं रहा। यह देशभर में फैल चुका है, क्योंकि यह मुद्दा स्थानीय नहीं, राष्ट्रीय और पीढ़ीगत है।

सोशल मीडिया से लेकर ज़मीनी स्तर तक, हर जगह यह सवाल गूंज रहा है,क्या विकास का मतलब प्रकृति का अंतिम संस्कार है?

जेसीबी ऑपरेटरों की एकजुटता ने इस अभियान को वह नैतिक बल दिया है, जो अब तक शायद नहीं था।

यह सवाल बेहद जरूरी है कि अगर मशीन चलाने वाला मजदूर यह तय कर सकता है कि वह पहाड़ नहीं उखाड़ेगा, तो प्रशासन क्यों असहाय दिखता है?

अवैध खनन वर्षों से किसके संरक्षण में चल रहा है?

सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी के आदेश ज़मीन पर क्यों नहीं दिखते?

यह चुप्पी ही असल में अरावली की सबसे बड़ी दुश्मन है।

अरावली को तोड़ने वाले अक्सर “विकास” का तर्क देते हैं। लेकिन सवाल यह है—

जिस विकास से पानी खत्म हो जाए, हवा ज़हरीली हो जाए और धरती बंजर बन जाए, क्या वह सच में विकास है?

असल विकास वही है जो प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चले।

अरावली को बचाने की यह लड़ाई अब केवल पर्यावरण की नहीं, बल्कि मानव विवेक की लड़ाई बन चुकी है।

जब जेसीबी ऑपरेटर मशीन रोक देता है, तो वह केवल पहाड़ नहीं बचाता, वह भविष्य बचाता है।

अब यह जिम्मेदारी सरकार, प्रशासन और समाज—तीनों की है कि इस चेतना को कुचला न जाए, बल्कि इसे नीति और कानून का आधार बनाया जाए।क्योंकि सच यही है अरावली बचेगी, तभी देश का संतुलन बचेगा।

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