भरत चतुर्वेदी
भारतीय राजनीति में भीड़ सिर्फ भीड़ नहीं होती—यह संकेत होती है बदलते समीकरणों की, उभरती उम्मीदों की और स्थापित शक्तियों के लिए संभावित खतरे की। आज यही भीड़ चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ के पीछे दिखाई दे रही है। जिस तरह वह युवाओं, दलित-पिछड़ों, वंचित वर्गों और पहली बार वोट देने वाले तबके में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, उसने कई राजनीतिक दलों और नेताओं को चिंता में डाल दिया है।
चंद्रशेखर का उभार सिर्फ विरोध की राजनीति नहीं, बल्कि वैचारिक राजनीति की पुनर्स्थापना है।
उनकी छवि—दमदार, स्पष्टवादी, संघर्षशील—आज के उस युवा वर्ग को आकर्षित कर रही है जो न तो पुराने नारे चाहता है और न ही पारंपरिक राजनीति का बोझ ढोना।
यही वजह है कि उनकी हर रैली में उमड़ रही भीड़ सिर्फ समर्थन नहीं, बल्कि परिवर्तन की भूख का प्रतीक बन रही है।
चंद्रशेखर की बढ़ती स्वीकार्यता सीधे-सीधे सत्ता पक्ष के वोट बैंक को चुनौती देती है। सामाजिक न्याय की नई भाषा, वंचित तबकों को लेकर उनकी आक्रामक राजनीति सत्ता की मौजूदा रणनीति को बाधित कर सकती है।
विपक्ष में मौजूद वे नेता जो खुद को दलित-पिछड़े वर्ग का सबसे बड़ा प्रतिनिधि बताते रहे, उनके लिए चंद्रशेखर का उभार एक बड़ा झटका है।
कई क्षेत्रों में उनका कद उन अनुभवी नेताओं से बड़ा दिखने लगा है, जो दशक भर से राजनीति में जमे हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्षेत्रीय दल हमेशा सामाजिक समीकरणों पर चलते हैं। चंद्रशेखर इन समीकरणों को उलटने की क्षमता रखते हैं। उनका प्रभाव जाटव-दलित वोटों के साथ-साथ OBC युवाओं पर भी बढ़ रहा है, जिससे कई पार्टियों की परंपरागत रणनीति बेअसर होती दिख रही है।
यह भीड़ स्वतःस्फूर्त है—यानी किसी नेता, पार्टी या जातीय समीकरण का परिणाम नहीं।
यह नई ऊर्जा है, जो नेतृत्व की तलाश में थी और चंद्रशेखर ने उसमें विश्वास जगाया है।
राजनीति में इतिहास गवाह है—जब भी कोई नेता बिना संसाधनों, बिना बड़े संगठन, सिर्फ जनसमर्थन से आगे बढ़ता है, वह सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए चुनौती बन जाता है।
यदि यह लोकप्रियता चुनावी परिणामों में बदलती है, तो यूपी की राजनीति में नई धुरी बन सकती है।
यदि चंद्रशेखर युवाओं और वंचितों की उम्मीदों को ठोस संगठन और रणनीति में बदलते हैं, तो राष्ट्रीय राजनीति में भी उनका कद बढ़ सकता है।
और यदि पुराने राजनीतिक दल उन्हें सिर्फ ‘तुरंत उभरने वाला चेहरा’ समझकर नज़रंदाज़ करते रहे, तो वही उनके लिए सबसे बड़ी गलती साबित होगी।
चंद्रशेखर का उभार सिर्फ एक नेता का बढ़ना नहीं—यह दशक भर से दबे-कुचले वर्गों की आवाज़ का नई ताकत के साथ उठना है।
उनके पीछे दिख रही भीड़ किसी भी दल के लिए साधारण भीड़ नहीं, बल्कि राजनीतिक भूगोल में आने वाले बड़े परिवर्तन की दस्तक है।
अब सवाल यह नहीं कि चंद्रशेखर कितना आगे जाएंगे—सवाल यह है कि आखिर यह भीड़ किसकी राजनीति को सबसे पहले और सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी।





