विधायक का पुतला वनाम कानून, और पुलिस की संवैधानिक जिम्मेदारी

0
36

शरद कटियार
फर्रुखाबाद के ऐतिहासिक त्रिपोलिया चौक पर पुलिस के सामने रविवार हुए भाजपा विधायक के पुतला दहन ने एक बार फिर यह बहस तेज कर दी है कि लोकतंत्र में विरोध का स्वरूप क्या हो, उसके संवैधानिक दायरे क्या हैं, और जब विरोध सत्ता पक्ष के जनप्रतिनिधि के खिलाफ हो तो पुलिस की भूमिका क्या होनी चाहिए। यह घटना केवल राजनीतिक टकराव नहीं है यह कानून, आचरण और प्रशासनिक जवाबदेही के मूल प्रश्नों को सामने लाती है।
भारत में “पुतला दहन” पूर्णत: गैरकानूनी नहीं है, पर इसकी वैधता कई शर्तों पर निर्भर करती है। यह विरोध का प्रतीकात्मक रूप जरूर है, लेकिन निम्न परिस्थितियों में यह अपराध बन जाता है भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत यदि पुतला दहन बिना अनुमति, प्रतिबंधित क्षेत्र में, या किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के उल्लंघन में होता है, तो यह अपराध है।धारा 153, 153A, 295ए के तहत
यदि दहन किसी समुदाय, व्यक्ति या जनप्रतिनिधि के प्रति घृणा फैलाने या विद्वेष उत्पन्न करने की नीयत से हो, तो यह दंडनीय है।
धारा 268, 283 (सार्वजनिक उपद्रव और रास्ता अवरोध) के तहत यदि पुतला दहन से मार्ग अवरुद्ध हो, जाम लगे या सार्वजनिक शांति भंग हो, तो यह अपराध है।साथ ही धारा 505 के तहत यदि पुतला दहन का उद्देश्य अशांति उत्पन्न करना या जनभावनाओं को भड़काना हो तो यह अपराध है।कानून यह स्पष्ट करता है कि कोई भी व्यक्ति—चाहे वह विपक्ष का नेता हो या सत्ता पक्ष का विधायक उसका पुतला बिना अनुमति और सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करते हुए नहीं फूंका जा सकता।
विरोध का अधिकार संविधान की धारा 19(1)(a) और 19(1)(b) के तहत सुनिश्चित है, परंतु कोई भी विरोध शांतिपूर्ण,अनुमति लेकर,सार्वजनिक व्यवस्था बाधित किए बिना,किसी व्यक्ति की मानहानि किए बिना होना आवश्यक है।
जब सत्ता पक्ष के विधायक का पुतला पुलिस की मौजूदगी में, बिना रोक-टोक जलाया जाए, तो यह न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि प्रशासनिक निष्पक्षता पर भी गंभीर प्रश्न खड़ा करता है।
पुलिस का दायित्व अत्यंत स्पष्ट है कि सार्वजनिक शांति बनाए रखना (CrPC 129–132) के तहत यदि भीड़ कानून का उल्लंघन कर रही हो, तो पुलिस को तुरंत कार्रवाई करनी होती है—रोकना, समझाना, आवश्यक होने पर हटाना।
पुलिस एक्ट और जिला मजिस्ट्रेट के आदेश के तहत किसी भी प्रकार का अनधिकृत प्रदर्शन प्रतिबंधित होता है।
पुलिस की उपस्थिति का उद्देश्य किसी भी समूह का “मनोबल बढ़ाना” नहीं, बल्कि कानून पालन कराना है।सत्तारूढ़ या विपक्ष किसी भी पक्ष के जनप्रतिनिधि की गरिमा की रक्षा करना है।
राजकीय पदधारकों के खिलाफ हिंसक प्रतीकों (जैसे पुतला दहन) को पुलिस को रोकना चाहिए। यह “लोकतांत्रिक असहमति” का हिस्सा हो सकता है, पर उसे नियंत्रण में रखना पुलिस की जिम्मेदारी है।
राज्य सरकार द्वारा जारी कई आदेश और गाइडलाइंस स्पष्ट कहते हैं, कि
बिना अनुमति सार्वजनिक स्थान पर पुतला दहन प्रतिबंधित है।
संवेदनशील या उच्च यातायात वाले क्षेत्रों में ऐसा आयोजन अपराध माना जाएगा।
चुनाव आचार संहिता या राजनीतिक तनाव की स्थिति में ऐसे कार्यक्रमों पर पूर्ण प्रतिबंध होता है।
सरकारी पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ “उत्तेजक” प्रदर्शन को नियंत्रित करना अनिवार्य है।
इसलिए सत्ता पक्ष के विधायक का पुतला फूंका जाना—वह भी पुलिस की मौजूदगी में शासन के स्थापित नियमों और प्रशासनिक अनुशासन की सीधी अवहेलना है।
लोकतंत्र विरोध नहीं रोकता, कानून तोड़ने की अनुमति नहीं देता
विरोध करना हर नागरिक का अधिकार है, पर पुलिस की भूमिका कभी भी “सहभागी” की नहीं, बल्कि “संविधान के संरक्षक” की होनी चाहिए। यदि एक कोतवाल किसी राजनीतिक संगठन को पुतला जलाने दे रहा है, उसमें खड़ा है या उसे प्रोत्साहित कर रहा है, तो यह पुलिस व्यवस्था की निष्पक्षता पर गहरा धब्बा है।
विधि-व्यवस्था का सम्मान तभी बचेगा जब पुलिस कानून के अनुसार कार्य करे,प्रदर्शन की अनुमति नियमों के तहत दी जाए,और किसी भी राजनीतिक दबाव से ऊपर उठकर प्रशासनिक निष्पक्षता कायम रखी जाए।
कानून सबके लिए समान है,विरोध करने वाले के लिए भी और उसे नियंत्रित करने वाली पुलिस के लिए भी। यही संविधान की आत्मा है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here