लखनऊ| बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की करारी हार के बाद राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज है कि इस परिणाम से समाजवादी पार्टी (सपा) को भी गहरा सबक लेना होगा। भाजपा की दोतरफा रणनीति—एक, मुफ्त लाभ वाली योजनाओं का सटीक इस्तेमाल और दूसरा, विपक्ष पर कानून-व्यवस्था को लेकर तीखे हमले—ने नतीजों की दिशा तय की। लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर संजय गुप्ता का कहना है कि उत्तर प्रदेश में 2027 के चुनावों से पहले सपा को यह स्पष्ट करना होगा कि पार्टी कानून का सम्मान करने वालों के साथ मजबूती से खड़ी है।
बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान लालू यादव के पुराने ‘अराजक राज’ की याद दिलाकर भाजपा ने महागठबंधन के खिलाफ माहौल बनाया। दूसरी ओर, कांग्रेस के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन में भारी असहजता देखने को मिली। कई सीटों पर कांग्रेस और राजद आमने-सामने आ गए, जिसने विपक्षी एकजुटता को कमजोर किया। राजनीतिक विश्लेषकों की राय है कि कांग्रेस का अधिकांश राज्यों में न संगठन बचा है और न जनाधार, और बिहार इसका ताजा प्रमाण है। हालांकि, लोकसभा चुनाव में परिस्थितियां भिन्न रहती हैं।
उत्तर प्रदेश में रणनीति बनाते समय सपा को इन बदलावों को ध्यान में रखना होगा। पूर्व की सपा सरकारों के कामकाज से जनता में सकारात्मक भाव पैदा हो सकता है, लेकिन चुनाव से पहले कानून-व्यवस्था पर जनता का भरोसा जीतना पार्टी के लिए बड़ी चुनौती बना रहेगा। जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर रवि श्रीवास्तव का मानना है कि लोकसभा की तुलना में राज्यों के चुनाव में कानून-व्यवस्था अधिक निर्णायक मुद्दा बनती है।
बिहार में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आठ दिनों तक 25 विधानसभा सीटों पर लगातार जनसभाएं कीं, लेकिन प्रभाव सीमित रहा। जिन सीटों पर उन्होंने प्रचार किया, उनमें से सिर्फ चार—रघुनाथपुर, बोधगया, रफीगंज और बिसफी—ही राजद के खाते में आईं। इस तरह वहां अखिलेश यादव का स्ट्राइक रेट मात्र 16 प्रतिशत दर्ज हुआ। दिलचस्प रूप से, राजद को जो कुल 25 सीटें मिलीं, उनमें से सिर्फ चार ही वे थीं जहां अखिलेश ने प्रचार किया था। नतीजों के बाद अखिलेश यादव ने महागठबंधन की हार के लिए एसआईआर को जिम्मेदार ठहराया है।




