बिहार की राजनीति में आज भी जिस नेता का प्रभाव सबसे अधिक दृश्यमान है, वह हैं नीतीश कुमार। तमाम उतार-चढ़ाव, गठबंधन बदलने और राजनीतिक खिंचातानी के बावजूद उनका प्रशासनिक अनुभव और संतुलन बनाने की क्षमता उन्हें एक स्थिर नेता के रूप में स्थापित करती है। नीतीश का मॉडल कम शब्दों और ज्यादा काम पर आधारित रहा है—और यही बात उन्हें जनता के बीच स्वीकार्य बनाती है।
इसके विपरीत, विपक्ष की तिकड़ी — राहुल गांधी, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव — बार-बार अपने राजनैतिक महत्व को साबित करने में असफल दिख रही है। यह असफलता केवल चुनावी आंकड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी राजनीति की मूल संरचना में कई गहरी कमज़ोरियाँ मौजूद हैं।
सबसे पहली बात—इन तीनों नेताओं के बीच कोई स्पष्ट नेतृत्व नहीं है। न कोई एक चेहरा, न कोई एक विचारधारा और न ही जनता के सामने कोई ठोस कार्यक्रम। यह तिकड़ी केवल भाजपा-विरोध की राजनीति पर चलती है, लेकिन जनता को सिर्फ विरोध नहीं चाहिए—उसे विकल्प चाहिए। और इस विकल्प की पेशकश विपक्ष नहीं कर पा रहा।
दूसरी बात—इनकी राजनीति में स्थिरता और विश्वसनीयता का भारी अभाव है। अखिलेश यादव आज भी अपने कार्यकाल के दौरान लगे “गुंडाराज” के आरोपों की छाया से बाहर नहीं निकल पाए हैं। तेजस्वी यादव की राजनीति भी कई बार ऐसे नेताओं और स्थानीय दबंगों के सहारे चलती हुई दिखती है जिनकी छवि जनता के बीच संदिग्ध है। और राहुल गांधी की राष्ट्रीय राजनीति लगातार ऐसे क्षेत्रीय नेताओं पर निर्भर रहती है जिनका अतीत विवादों से भरा हुआ है।
यही तीसरा बड़ा कारण है—गुंडों और अपराधियों की तरफदारी।
जब जनता सुरक्षा और कानून-व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है, तब विपक्ष का यह रुझान उसके लिए सबसे बड़ी कमजोरी बन जाता है। लोगों के मन में यह धारणा बनी रहती है कि विपक्ष सत्ता में आएगा तो अपराध बढ़ेंगे, और यही डर विपक्ष की अपील को कमज़ोर बना देता है।
उधर नीतीश कुमार की छवि इससे बिल्कुल उलट है। उन्होंने प्रशासनिक स्तर पर कई बार कठोर फैसले लिए हैं, पंचायतों तक व्यवस्था को मजबूत किया है, कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता दी है और सरकार को स्थिर बनाए रखा है। यही वजह है कि जनता उन्हें एक विश्वसनीय और व्यवहारिक नेता मानती है। चाहे वह उनके आलोचक हों या समर्थक—यह बात सभी मानते हैं कि नीतीश की राजनीति में एक “व्यवस्था” दिखाई देती है।
विपक्ष की तिकड़ी के पास न ऐसा सामूहिक विजन है, न संगठनात्मक शक्ति और न ही वह जनविश्वास जिसमें स्थिर शासन की गारंटी मिले। राजनीति में केवल रैलियाँ, बड़े-बड़े बयान और गठबंधन के फोटो ऑप—ये सब जनता को प्रभावित नहीं कर पाते। जनता उस नेतृत्व की तरफ देखती है जो स्थिरता दे सके, दंगों और अपराध को नियंत्रित करे, और विकास को धरातल तक ले जा सके।
इन्हीं सभी कारणों से आज हालात यह हैं कि बिहार में नीतीश का दबदबा कायम है, जबकि राहुल–अखिलेश–तेजस्वी की तिकड़ी जनता के लिए विकल्प बनने में लगातार विफल हो रही है। राजनीति में शोर बहुत है, लेकिन भरोसा कम ही लोगों में बचा है—और नीतीश उन्हीं में से एक हैं।






