लखनऊ आरंभ हुआ ‘जनजाति भागीदारी उत्सव’ केवल सांस्कृतिक प्रदर्शनी का मंच भर नहीं है; यह उस ऐतिहासिक यात्रा का पुनर्पाठ है जिसे राष्ट्र ने लंबे समय तक अनदेखा किया। जो समुदाय जंगलों, पर्वतों और धरती की लय के साथ जीता रहा — उसकी संस्कृति, उसके संघर्ष और उसकी चेतना को आज जिस सम्मान से मंच दिया जा रहा है, वह भारतीय समाज की परिपक्वता का संकेत है।
भगवान बिरसा मुंडा, जिनकी 150वीं जयंती के अवसर पर यह आयोजन समर्पित है, केवल एक जनजातीय नायक नहीं थे; वे स्वतंत्रता, स्वाभिमान और सामाजिक न्याय के नायक थे। उन्होंने जब “अपना देश और अपना राज्य” का नारा दिया था, तब वह केवल राजनीतिक घोषणा नहीं थी — वह उस अस्मिता का उदघोष था जिसे लंबे समय तक सत्ता और समाज दोनों ने सीमांत पर खड़ा रखा।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने समारोह में जिस संवेदनशीलता के साथ जनजातीय समाज की भूमिका और उपेक्षा के ऐतिहासिक आयामों को रेखांकित किया, वह राजनीतिक अभिव्यक्ति से अधिक एक सामाजिक स्वीकार जैसा लगा। उनका यह कहना अर्थपूर्ण है कि कभी सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जनजाति की सीटें खाली रह जाती थीं — क्योंकि आवेदन ही नहीं आते थे।
यह वाक्य बीते वर्षों की उस खाई की याद दिलाता है जिसे विकास, शिक्षा और विश्वास के अभाव ने और गहरा किया था।
आज वही समुदाय अपनी परंपराओं के साथ मंच पर खड़ा है, अपनी कला प्रदर्शित कर रहा है, अपनी भाषा और अपने शौर्य को नए भारत की कथा में जोड़ रहा है — यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं है। यह उस सरकारी इच्छाशक्ति का परिणाम भी है, और उस समुदाय के अंतर्मन में जगे नए साहस का प्रमाण भी।
उत्सव में शामिल प्रदर्शनी, सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ, पारंपरिक विरासत और हस्तशिल्प — सब मिलकर हमें यह बताते हैं कि भारत की सभ्यता किसी एक धारा का परिणाम नहीं है। यह अनेक प्रवाहों का संगम है, जिनमें जनजातीय संस्कृति की धारा सबसे स्वाभाविक, सबसे प्राचीन और सबसे प्रकृति-निष्ठ है।
पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह और समाज कल्याण मंत्री असीम अरुण की उपस्थिति इस तथ्य को पुष्ट करती है कि सरकार अब जनजातीय समाज को केवल ‘लाभार्थी’ के रूप में नहीं देख रही, बल्कि उसे सांस्कृतिक नीति और सामाजिक विकास के केंद्र में ला रही है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि उत्सव केवल छह दिनों की गतिविधि बनकर न रह जाए।
यह आत्म-स्मरण, यह सांस्कृतिक नव जागरण और यह सम्मान — नीति में, व्यवहार में और समाज की चेतना में स्थायी रूप से स्थान पाए।
क्योंकि अगर भारत को अपनी आत्मा को पहचानना है, तो उसे अपने जंगलों, अपनी पर्वतमालाओं और अपनी जनजातीय बस्तियों की ओर लौटकर देखना होगा। वही भारत की जड़ है, वही उसका आदिम संगीत है, और वही उसकी सबसे प्रामाणिक संस्कृति।





