
ईश्वर दास, ब्रह्मचारी
स्त्री, यह मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की आत्मा है। वह सृजन की जननी है, त्याग की प्रतिमूर्ति है, और संघर्ष की परिभाषा भी। यदि पुरुष समाज की शक्ति है, तो स्त्री उसकी दिशा है। वह कभी माँ बनकर पोषण करती है, कभी पत्नी बनकर सहचर्य देती है, तो कभी बेटी बनकर जीवन में मुस्कान बिखेर देती है। लेकिन प्रश्न यह है, क्या आज समाज वास्तव में स्त्री को उसके वास्तविक स्वरूप में पहचान पाया है?,
जब धरती पर पहला बीज अंकुरित हुआ, तब उस बीज में मातृत्व की भावना थी, वही स्त्रीत्व है। स्त्री वह है जो जीवन देती है, और वही है जो जीवन में अर्थ भरती है। वह अपनी कोमलता में भी असीम शक्ति रखती है। सीता की सहनशीलता, द्रौपदी का प्रतिकार, झांसी की रानी का साहस, और मदर टेरेसा की करुणा, ये सब एक ही स्त्री के विविध रूप हैं।
वह सृजन करती है, पर जब समय आता है तो विनाश की ज्वाला भी बन जाती है। यही कारण है कि कहा गया, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं।
आज के आधुनिक युग में भी स्त्री दो ध्रुवों के बीच झूल रही है। एक ओर समाज उसे देवी के रूप में पूजता है, तो दूसरी ओर उसी समाज में उसकी सुरक्षा, स्वतंत्रता और सम्मान पर प्रश्न उठते हैं।
घर से लेकर कार्यस्थल तक, स्त्री को बार-बार यह साबित करना पड़ता है कि वह केवल भावनाओं की प्रतीक नहीं, बल्कि विवेक और नेतृत्व की भी धुरी है। वह डॉक्टर है, इंजीनियर है, सैनिक है, पत्रकार है, वैज्ञानिक है, और फिर भी उसे बार-बार ,कमजोर, कहकर आंकने की कोशिश की जाती है। यह विरोधाभास हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।
शक्ति का अर्थ केवल बल नहीं है, बल्कि संवेदना के साथ निर्णय लेने की क्षमता भी है, और यही गुण स्त्री में जन्मजात होता है। जब एक माँ अपने बच्चे को दर्द में भी मुस्कुराकर जन्म देती है, तो वह शक्ति का सबसे बड़ा उदाहरण बन जाती है। जब एक बहन घर में सबको जोडक़र रखती है, तो वह प्रेम की शक्ति का प्रतीक बनती है। और जब एक महिला अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है, तो वह समाज की चेतना बन जाती है। भारतीय दर्शन में स्त्री को ,शक्ति, कहा गया है, शिव और शक्ति का मिलन ही सृष्टि का आधार है।
बिना शक्ति के शिव ‘शव’ हैं। अर्थात्, बिना स्त्री के यह संसार केवल अस्तित्वहीन नहीं, निर्जीव भी है। वह केवल देह नहीं, बल्कि चेतना है, जो सृष्टि के हर अंश में व्याप्त है। स्त्री को किसी उपकार की तरह सम्मान नहीं चाहिए, उसे समान अवसर, समान अधिकार और समान निर्णय शक्ति चाहिए। उसे आराधना नहीं, अधिकारों की मान्यता चाहिए। आज समय है कि हम स्त्री को ,समान भागीदार, के रूप में देखें, न कि ,मदद की पात्र, के रूप में स्त्री वह है, जो जन्म देती है, जो झेलती है, जो गढ़ती है, और जो बदलती भी है। वह नदी है, जो बहती है, आग है, जो तपती है, और मिट्टी है, जो हर आकार में ढल जाती है। स्त्री कोई परिभाषा नहीं, वह स्वयं एक दर्शन है।, वह प्रश्न नहीं, उत्तर है। वह दया नहीं, दृढ़ता है। वह कोमल नहीं, किंतु अजेय है।
आज जब हम ,नारी सशक्तिकरण, की बात करते हैं, तो यह केवल एक अभियान नहीं, बल्कि उस चेतना को पुनर्जीवित करने का प्रयास है जो युगों से मानवता की आधारशिला रही है। स्त्री, सृष्टि की आत्मा है, और उसके बिना समाज केवल शरीर है, आत्मा नहीं।






