“अफवाहों का वायरस: सोशल मीडिया की बेलगाम दुनिया और मरती संवेदनशीलता”

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शरद कटियार, संपादक – यूथ इंडिया

सोशल मीडिया आज सूचना का सबसे सशक्त माध्यम बन चुका है, लेकिन इसी शक्ति के साथ एक खतरनाक प्रवृत्ति भी जन्म ले चुकी है: झूठी खबरों की महामारी।
बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र के निधन की झूठी अफवाह इसका ताजा उदाहरण है। कुछ ही घंटों में श्रद्धांजलि पोस्ट की बाढ़ आ गई, जबकि सच्चाई यह थी कि धर्मेंद्र जी जीवित थे और उपचाराधीन।
यह घटना केवल एक अफवाह नहीं, बल्कि इस बात का प्रतीक है कि हमारी संवेदनशीलता और जिम्मेदारी किस तेज़ी से मर रही है। यह कोई पहली बार नहीं है। इससे पहले अमिताभ बच्चन, रतन टाटा, लता मंगेशकर, और मनोज कुमार जैसे अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों की झूठी मौत की खबरें सोशल मीडिया पर वायरल हो चुकी हैं।
हर बार यही क्रम दोहराया गया, किसी ने एक फर्जी पोस्ट बनाई, लाखों लोगों ने बिना जांचे साझा किया, और कुछ घंटों में सोशल मीडिया ने एक जीवित इंसान का श्राद्ध कर दिया। यह केवल गलत सूचना नहीं, यह नैतिक पतन की पराकाष्ठा है। आधुनिक डिजिटल युग में लोग पहले बताने की होड़ में हैं, सही बताने की जिम्मेदारी भूल गए हैं।
एक वायरल पोस्ट, एक फोटो, या एक ट्वीट से अब मृत्यु प्रमाण पत्र तैयार हो जाता है। समस्या यह है कि आज समाज सत्य से अधिक सेंसेशन का उपभोक्ता बन चुका है। यह वही प्रवृत्ति है जिसने पत्रकारिता की गंभीरता को कमजोर किया और जनता की सोच को सतही बना दिया। अफवाहें इसीलिए फैलती हैं क्योंकि वे भावनाओं को उत्तेजित करती हैं, और भावनाएं विवेक को पीछे छोड़ देती हैं। जब कोई प्रसिद्ध व्यक्ति अस्वस्थ होता है, तो लोग सहानुभूति के बजाय क्लिक खोजते हैं।
यह प्रवृत्ति समाज को संवेदनहीन, अविश्वासी और अस्थिर बना रही है। आज स्थिति यह है कि जब सच्ची खबर आती है, तब भी लोग उसे फेक न्यूज मान लेते हैं। यह सूचना युग नहीं, अविश्वास युग बनता जा रहा है। सोशल मीडिया के इस खुले मंच पर जिम्मेदारी दोतरफा है, मीडिया की भी, और जनता की भी। मीडिया का धर्म है, सत्यापन, और जनता का कर्तव्य है, संदेह। हर फॉरवर्ड के साथ एक जिम्मेदारी जुड़ी है, क्योंकि जब हम बिना जांचे कुछ साझा करते हैं, तो हम भी उस झूठ के साझेदार बन जाते हैं। अब समाज को डिजिटल साक्षरता से आगे बढक़र डिजिटल संयम सीखना होगा।
खबर साझा करने से पहले स्रोत जांचें। भावनात्मक पोस्ट से सावधान रहें। फेक न्यूज की रिपोर्ट करें, उसे बढ़ावा न दें। वायरल से ज्यादा विश्वसनीय को महत्व दें। सत्य को तौलने की यह संस्कृति ही लोकतंत्र और सामाजिक विवेक की रक्षा कर सकती है। धर्मेंद्र जैसे कलाकार, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को पहचान दी, उनके जीवित रहते उनकी झूठी मौत का मज़ाक समाज के लिए एक दर्पण है। यह दर्पण दिखाता है कि तकनीक तो आगे बढ़ गई, पर इंसानियत पीछे छूट गई। हम सूचना के युग में नहीं, अफवाहों के जंगल में जी रहे हैं। वक्त आ गया है कि हम शेयर से पहले सोचें, और यह याद रखें हर फॉरवर्ड एक जि़म्मेदारी है, और हर अफवाह एक अपराध।

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