– जहाँ सरकार पारदर्शिता का दावा करती है, वहीं मतदाता पहचान पत्र से आधार जोड़ने में धीमी चाल — क्या वजह सिर्फ तकनीकी है या मंशा में कोई खोट है?
शरद कटियार
देश में “डिजिटल इंडिया” का नारा बुलंद है। आज हर नागरिक की पहचान एक 12 अंकों के आधार कार्ड से बंध चुकी है। पैन कार्ड हो, बैंक खाता, गैस सब्सिडी, मोबाइल नंबर, स्कूल परीक्षा, नौकरी में उपस्थिति या सरकारी योजना का लाभ, सबकुछ आधार से जुड़ा हुआ है। लेकिन सवाल उठता है कि जब हर व्यवस्था में पारदर्शिता के नाम पर आधार अनिवार्य बना दिया गया, तो फिर चुनावी पहचान पत्र (Voter ID) के साथ इसे जोड़ने से सरकार क्यों हिचक रही है?
भारत की लोकतांत्रिक शक्ति “मतदाता सूची” में निहित है। यदि वही सूची संदिग्ध, अपूर्ण या दोहराव से भरी हो, तो लोकतंत्र की नींव खोखली हो जाती है। चुनाव आयोग (ECI) के मुताबिक देश में लगभग 95 करोड़ मतदाता हैं, जबकि आधार-लिंकिंग की प्रक्रिया अब तक स्वैच्छिक (Voluntary) रखी गई है।
2023 में शुरू हुई इस कवायद में केवल 45% मतदाताओं ने ही अपने वोटर आईडी को आधार से जोड़ा है।
यानि करीब 50 करोड़ वोटर आज भी अनलिंक हैं।
अब सवाल उठता है जब सरकार पैन कार्ड को आधार से न जोड़ने पर ₹10,000 तक का जुर्माना लगाती है,
जब गैस सब्सिडी, राशन, और पेंशन सब आधार के बिना रुकी रहती हैं, तब लोकतंत्र की सबसे पवित्र प्रक्रिया — मतदान — उसके दायरे से बाहर क्यों?
चुनाव आयोग और UIDAI की तकनीकी बैठकें कई बार हो चुकी हैं। रिपोर्टों के अनुसार सॉफ्टवेयर और डाटा-इंटरफेस तैयार है, पर इसे अनिवार्य करने में केंद्र सरकार ने अब तक कोई ठोस आदेश नहीं दिया।
आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है — यह तर्क बार-बार दिया गया। पर विशेषज्ञों का कहना है कि “डुप्लिकेट नाम हटाने के लिए नागरिकता नहीं, पहचान पर्याप्त है।”
यदि राशन कार्ड से फर्जी नाम हट सकते हैं, तो वोटर लिस्ट से क्यों नहीं?
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि एक ही व्यक्ति के दो या तीन नामों से पंजीकृत वोट चुनावी परिणामों को प्रभावित करते हैं।
यदि आधार से लिंकिंग अनिवार्य की जाए, तो फर्जी और डुप्लिकेट वोट समाप्त हो जाएंगे।
यही वजह है कि कई राजनीतिक दल, चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में — इस प्रक्रिया से असहज दिखाई देते हैं।
आंकड़े बताते हैं भारत में कुल मतदाता 95 करोड़ आधार से जुड़े,वोटर आईडी लगभग 42–43 करोड़ (45%),
राज्यों में सर्वोच्च लिंकिंग दर: आंध्र प्रदेश (94%), तेलंगाना (90%), सबसे कम लिंकिंग दर: उत्तर प्रदेश (31%), बिहार (28%), पश्चिम बंगाल (26%), अनुमानित डुप्लिकेट वोटर नाम: 2.7 करोड़ से अधिक (ECI के आंतरिक मूल्यांकन के अनुसार) कोविड-काल में जब सरकार ने वैक्सीन रजिस्ट्रेशन को आधार से जोड़ा, तब किसी “संवैधानिक बाधा” का हवाला नहीं दिया गया। पर चुनाव की बात आते ही गति क्यों रुक जाती है? क्या पारदर्शिता सिर्फ लाभ योजनाओं तक सीमित है, जहाँ सरकार को डेटा चाहिए — और मतदान जैसे अधिकार में नहीं, जहाँ जनता की निगरानी जरूरी है? सरकार यदि वाकई “स्वच्छ भारत” और “पारदर्शी शासन” की बात करती है, तो उसे चुनावी पारदर्शिता से भी पीछे नहीं हटना चाहिए।
आधार-वोटर लिंकिंग से फर्जी नाम हटेंगे,मृत व्यक्तियों के नाम स्वतः निष्क्रिय होंगे,एक व्यक्ति, एक वोट की संवैधानिक भावना सशक्त होगी। यह सुधार सिर्फ चुनाव आयोग की जिम्मेदारी नहीं — बल्कि लोकतंत्र की आत्मा की सफाई है। सरकार ने हर जगह आधार का जाल बिछा दिया, पर जहाँ जनता की ताकत तय होती है, वहाँ यह कड़ी जोड़ने से कतराती है।क्या यही “पारदर्शी सरकार” है? क्या यही “डिजिटल इंडिया” का चेहरा है?अब वक्त है, मतदाता जागे, सवाल करे, और माँगे ,“मेरा वोट, मेरी पहचान — एक ही आधार!”





