अशोक मधुप
पश्चिमी उत्तर प्रदेश (वेस्ट यूपी) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक बेंच स्थापित करने की मांग एक बहुत पुराना और लगातार जारी रहने वाला आंदोलन है। लगभग 70 साल पुरानी यह मांग केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि क्षेत्रीय न्याय, सामाजिक न्याय और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की एक गहरी पुकार है। इस आंदोलन के कामयाब न होने की खास बात यह है कि आंदोलनरत वकील आदोलन से जनता को नही जोड़ सके। वह यह बताने में और जनता में मन में बैठाने में असफल रहे कि हाईकार्ट की बैंच पश्चिम उत्तर प्रदेश में बनने से यहां के रहने वालों को क्या लाभ होगा?
1948 में, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गई थी, लेकिन पश्चिमी यूपी को इससे कोई राहत नहीं मिली, क्योंकि लखनऊ भी इस क्षेत्र से काफी दूर था। वैसे 1955 की विधि आयोग की सिफारिशों ने इस आंदोलन को एक नई दिशा दी। आयोग ने सिफारिश की थी कि उच्च न्यायालय की बेंच उन क्षेत्रों में स्थापित की जानी चाहिए, जहाँ से दूरी अधिक है। साल 1955 में तत्कालीन मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने मेरठ में हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने की सिफारिश की । वर्ष 1976 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने केंद्र को खंडपीठ स्थापित किए जाने का प्रस्ताव भेजा । जनता पार्टी के शासन में राम नरेश यादव की सरकार ने भी इस मांग पर मुहर लगाई और पश्चिमी यूपी में हाईकोर्ट बेंच स्थापित करने के प्रस्ताव को कर उसे केंद्र सरकार को भेजा। बनारसीदास सरकार एवं बाद में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कार्यकाल में भी एक प्रस्ताव पारित कर हाईकोर्ट बेंच की स्थापना की मांग को संस्तुति प्रदान की गईं । प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया।
1970 और 1980 के दशक में, यह आंदोलन और भी जोर पकड़ने लगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के वकीलों ने हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के माध्यम से इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया। किसान नेता चौधरी चरण सिंह, मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह जैसे नेताओं ने भी इस मांग को अपना समर्थन दिया। इससे यह मांग राजनीतिक मुद्दा बन जरूर बन गई किंतु नेताओं की इच्छा शक्ति के अभाव में और इलाहाबाद के वकीलों के दबाव में कभी पूरी नही हुई। आज भी, पश्चिमी यूपी के कई संगठन और बार एसोसिएशन इस मुद्दे पर नियमित रूप से आंदोलन करते रहते हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों जैसे मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और मथुरा से इलाहाबाद की दूरी 500 से 700 किलोमीटर है। इस लंबी दूरी के कारण मुवक्किलों और वकीलों को अत्यधिक समय, धन और ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। गरीबी और संसाधनों की कमी वाले लोगों के लिए यह एक बड़ा बोझ बन जाता है।इलाहाबाद में एक मुकदमे के लिए जाने का मतलब है, न केवल यात्रा का खर्च, बल्कि वहाँ रहने और खाने का भी खर्च। इसके अलावा, वकीलों की फीस भी अधिक होती है। यह सब मिलकर गरीब और मध्यम वर्ग के लिए न्याय को बहुत महंगा बना देता है।एक बात और इलाहाबाद की जगह यदि पश्चिम उत्तर प्रदेश को लखनऊ खंड पीठ से संबद्ध कर दिया जाता, तब भी दूरी दौ सौ किलोमीटर के आसपास कम हो जाती। लखनऊ पश्चिम उत्तर प्रदेश के नजदीक पड़ता है किंतु ऐसा भी नही किया गया।इलाहाबाद उच्च न्यायालय में पहले से ही मुकदमों का भारी बोझ है। पश्चिमी यूपी से आने वाले मामलों की बड़ी संख्या के कारण, न्याय में और अधिक देरी होती है। एक बेंच की स्थापना से मामलों का तेजी से निपटारा हो सकेगा, जिससे न्यायपालिका पर दबाव कम होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश एक आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसे अक्सर “भारत का चीनी का कटोरा” कहा जाता एक हाईकोर्ट बेंच की स्थापना से इस क्षेत्र की न्यायिक और राजनीतिक पहचान मजबूत होगी, और यह एक आत्मनिर्भर केंद्र बन सकेगा।
वर्तमान में भी यह आंदोलन जारी है, हालाँकि इसने कई बार धीमी गति पकड़ी है।1981 से वकीलों के संगठन नियमित रूप से प्रत्येक शनिवार को हड़ताल करते हैं, वे धरने देते रहतें हैं, और ज्ञापन सौंपते हैं। हालांकि, इस आंदोलन को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस आंदोलन के सामने सबसे बडी चुनौती है कि किसी भी राजनीतिक दल ने इस मुद्दे को पूरी गंभीरता से नहीं लिया है। केंद्र और राज्य सरकारें इस मांग को टालती रही हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकील इस मांग का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि एक बेंच की स्थापना से उनका काम और आय प्रभावित होगी। सरकार का तर्क है कि एक बेंच की स्थापना से प्रशासनिक जटिलताएँ बढ़ेंगी और यह एक आर्थिक बोझ होगा। इसके अलावा, सरकार अक्सर इस मुद्दे को भविष्य के लिए टाल देती है।एक मजबूत और एकीकृत नेतृत्व की कमी ने इस आंदोलन को कमजोर किया है। अलग-अलग संगठन अपने-अपने तरीके से आंदोलन चला रहे हैं, जिससे एकता नहीं बन पाती।
हाल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच स्थापना के लिए सांसद अरुण गोविल मुखर हो गए हैं। मेरठ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने यह मांग उठाने के बाद सांसद अब अधिवक्ताओं की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कराएंगे। इसके लिए सांसद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अधिवक्ताओं के लिए मिलने का समय मांगा है।
सांसद ने कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लगभग छह करोड़ आबादी को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय दिलाने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। महाराष्ट्र जैसे राज्यों में उच्च न्यायालय की चार बेंच हैं।मध्य प्रदेश में दो बेंच हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश इतना बड़े होने के बाद भी यहां उच्च न्यायालय की एक पीठ है। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए न्याय प्राप्त करना मुश्किल है। सांसद ने कहा कि यहां बेंच मिलने से कम समय में न्याय मिलेगा और धन की भी बचत होगी।एक हाईकोर्ट बेंच की स्थापना से न केवल पश्चिमी यूपी के लोगों को न्याय तक पहुँचने में आसानी होगी, बल्कि यह पूरे राज्य की न्याय प्रणाली को मजबूत करेगा। यह आवश्यक है कि सरकार, न्यायपालिका और सभी हितधारक मिलकर इस मुद्दे का समाधान निकालें।
पश्चिमी महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में बॉम्बे हाईकोर्ट की एक नई पीठ ओर राज्य में चौथी हाईकोर्ट बेंच के गठन की अधिसूचना एक अगस्त को जैसे ही जारी हुई यूपी के मेरठ में सरगर्मियां बढ़ गईं। “पश्चिम उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट बेंच केंद्रीय संघर्ष समिति” ने तुरंत वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए पश्चिमी यूपी के 22 जिलों के बार अध्यक्षों और महामंत्री के साथ बैठक की. समिति के पदाधिकारियों ने सरकार से सवाल किया कि जब कोल्हापुर में बॉम्बे हाईकोर्ट की चौथी बेंच खुल सकती है तो यूपी के मेरठ में हाईकोर्ट की तीसरी बेंच क्यों नहीं स्थापित हो सकती? मेरठ में हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर पश्चिमी यूपी के वकीलों ने चार अगस्त को हड़ताल कर प्रदर्शन किया।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट बैंच की स्थापना का आंदोलन पिछले लगभग 70 साल से जारी है। कब तक जारी रहेगा, यह भी नही कहा जा सकता।इतना जरूर कहा जा सकता है कि लगभग 70 साल चलने वाला यह आंदोलन लंबी अवधि तक चलने वाले आंदोलनों में जरूर दर्ज हो गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)






