कानून की ओट में अपराध: जब ‘वकील’ ही बन जाएं माफिया का हथियार

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✍️ शरद कटियार

उत्तर प्रदेश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर एक बार फिर से सवाल खड़े हो गए हैं — और इस बार निशाने पर हैं वही लोग जो कानून की रक्षा का संकल्प लेकर अदालतों की चौखट पार करते हैं। कन्नौज से लेकर फर्रुखाबाद तक फैले एक षड्यंत्रकारी जाल ने यह साबित कर दिया है कि जब कानून का जानकार ही अपराध का भागीदार बन जाए, तो न्याय का स्वरूप ही खोखला पड़ जाता है।
कन्नौज के थाना सौरिख क्षेत्र के ग्राम चपुन्ना निवासी शिक्षाविद मनोज अग्निहोत्री का मामला इस बात का जीवंत उदाहरण है कि कैसे ईमानदारी आज भी सत्ता और तंत्र की सबसे बड़ी दुश्मन है।
मनोज अग्निहोत्री ने जब करीब 200 करोड़ की सरकारी जमीन पर कब्जे और करोड़ों के गबन की शिकायत लोकायुक्त और शासन से की, तो यह कदम भ्रष्टाचार के अंधेरे गलियारों में बिजली की तरह कौंध गया।
लेकिन इसके बाद जो हुआ, वह लोकतंत्र के लिए कलंक है।
शिकायत के बदले उन्हें फर्जी मुकदमों, बलात्कार जैसे गंभीर आरोपों, और दलित एक्ट के झूठे प्रकरणों में फंसाकर तबाह करने का सुनियोजित खेल रचा गया।
इस खेल का सूत्रधार बताया जा रहा है फर्रुखाबाद का कुख्यात वकील अवधेश मिश्रा, जिसने माफिया अनुपम दुबे और उसके रिश्तेदारों के साथ मिलकर कूटरचना और फर्जी अभिलेखों के जरिए सरकारी जमीन हड़पने की साजिश रची।
जब मनोज अग्निहोत्री ने इन सबकी पोल खोली, तो उसी कानून को हथियार बनाकर उन्हें प्रताड़ित किया गया।
2021 में कन्नौज की एक दलित महिला से कथित बलात्कार का झूठा मुकदमा दर्ज कराया गया, जिसमें बाद में धारा 164 के तहत जबरन बयान दिलाकर अग्निहोत्री को फंसाया गया।
यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति के खिलाफ साजिश नहीं, बल्कि कानून के दुरुपयोग का सबसे खतरनाक उदाहरण है।
फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी संजय कुमार सिंह और नगर मजिस्ट्रेट सतीश कुमार की जांच में स्पष्ट पाया गया कि
चकबंदी अधिकारी दीपक कुमार के फर्जी हस्ताक्षर कर 1974 की खतौनी को 2016 में कूटरचित किया गया।
रिपोर्ट में इसे “गंभीर कूटरचना और धोखाधड़ी” माना गया।
मामले की सच्चाई सामने आने के बाद जिलाधिकारी ने इसे कन्नौज प्रशासन को अभियोग दर्ज करने के लिए भेजा, लेकिन
हाईकोर्ट से स्टे ऑर्डर लेकर पूरा तंत्र बच निकला।
यहाँ प्रश्न उठता है —
जब दस्तावेज़ों से फर्जीवाड़ा साबित है, तब भी ऐसे अपराधी और उनके सहयोगी अब तक आज़ाद क्यों हैं?
लोकायुक्त की रिपोर्ट और जिलाधिकारी की जांच — दोनों ने माफिया नेटवर्क की हकीकत उजागर की।
फिर भी, इस तंत्र ने न केवल न्याय को रोका बल्कि पीड़ित को धमकियों और रंगदारी से चुप कराने की कोशिश की।
मनोज अग्निहोत्री के अनुसार, वकील अवधेश मिश्रा ने कई बार फतेहगढ़ में उन्हें धमकाया, कहा —

> “अगर नहीं माने, तो कन्नौज की तरह फर्रुखाबाद में भी तुम्हारे खिलाफ झूठे मुकदमे लिखवा दूंगा।”
यह सिर्फ धमकी नहीं, बल्कि व्यवस्था पर अपराध के दबदबे का प्रतीक है।
यह सवाल हर उस नागरिक के मन में उठना चाहिए जो संविधान में आस्था रखता है —
क्या न्याय के नाम पर बने संस्थान अपराधियों का संरक्षण केंद्र बनते जा रहे हैं?
जब एक शिक्षक, समाजसेवी या आम नागरिक भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर फर्जी मामलों में फंसाया जा सकता है, तो क्या सच बोलना अपराध बन गया है?
क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की “जीरो टॉलरेंस” नीति इस गैंग के आगे बौनी पड़ रही है?
“कानून की मर्यादा तभी बचेगी जब अपराधी वकील नहीं, वकील अपराधी के खिलाफ खड़ा होगा।”
मनोज अग्निहोत्री जैसे लोगों ने साबित किया है कि सच को दबाया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता।
यह प्रकरण न्यायपालिका और शासन — दोनों के आत्मनिरीक्षण का अवसर है।
कानून के नाम पर अपराध करने वालों के विरुद्ध यदि सख्त कार्रवाई नहीं हुई, तो आने वाली पीढ़ियाँ न्याय पर से विश्वास खो देंगी।
> “कानून की आड़ में अपराध करने वाले वकील और माफिया के गठजोड़ को तोड़ना अब शासन की नैतिक जिम्मेदारी है।
यदि ऐसे नेटवर्क पर कार्रवाई नहीं होती, तो न्याय सिर्फ किताबों में बचेगा, जमीन पर नहीं।”

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