– “राष्ट्रहित में क्षत्रिय एकीकरण अभियान” की पुकार – राघवेंद्र सिंह राजू का बयान
– “वर्ण व्यवस्था में सबसे अधिक क्षत्रियों को बांटा गया, अपनों से दगाबाजी करने वालों को मैंने गैरों के पैरों में गिरते देखा है”
नई दिल्ली। देश की राजनीति में जातिवाद का उपयोग अब केवल वोटों की गोलबंदी तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह एक प्रयोगशाला बन गया है।
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय महामंत्री राघवेंद्र सिंह राजू ने एक विशेष बातचीत में कहा कि सत्ता की राजनीति ने समाज को खंड-खंड कर दिया है और सबसे अधिक क्षति क्षत्रिय समाज को हुई है।
राजू ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद देश में अखंड भारत निर्माण के सपने के साथ राजनीति शुरू हुई थी, लेकिन आज जातिगत समीकरणों ने उस सोच को कुंद कर दिया है।
उन्होंने बताया कि अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा द्वारा आयोजित तीन बड़ी पदयात्राओं और अनेक रैलियों का उन्होंने संचालन किया है।
> “28 मार्च 2010 को नई दिल्ली के रामलीला मैदान में जब हम सब एक मंच पर थे, तो लगा था कि राजपूताना एक सूत्र में बंध गया है।
परंतु राजनीतिक साजिशों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने हमें फिर बिखेर दिया,”
उन्होंने कहा।
बुंदेलखंड छात्र राजनीति से जुड़े राघवेंद्र सिंह राजू ने बताया कि वह 13 जनवरी 1987 से क्षत्रिय एकता के लिए संघर्षरत हैं।
गोरखपुर विश्वविद्यालय में आयोजित क्षत्रिय महासम्मेलन में महंत अवैद्यनाथ जी से प्रेरणा लेकर उन्होंने संगठनात्मक जीवन की शुरुआत की थी।
वाराणसी से प्रकाशित अपनी पुस्तक “फिर इतिहास लौटा” का उल्लेख करते हुए राजू ने कहा कि सृष्टि की रचना के साथ ही वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आई थी।
> “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चार वर्णों के साए में मानव सभ्यता ने उच्च मानवीय मूल्यों के साथ विकास किया,
लेकिन आजादी के बाद सत्ता की मलाई ने इन मूल्यों को जातीय स्वार्थों में बांट दिया,”
उन्होंने कहा।
राजू ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद सत्ता में आए कुछ नेताओं ने समाज को बांटने का काम किया।
> “उत्तर भारत में यादव, अहीर और गवाला तीन अलग जातियां थीं,
जिनमें न तो बेटी-व्यवहार था और न समान रीति-रिवाज।
लेकिन नेताओं ने इन्हें ‘यादव’ शब्द में जोड़कर एक वोट बैंक तैयार कर लिया।
यह राजनीति का सबसे चालाक प्रयोग था,”
उन्होंने कहा।
उन्होंने यह भी कहा कि एक राजनीतिक खानदान ने विप्र वर्ग के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत की और क्षत्रिय समाज को कमजोर करने के लिए “वामपंथी कलमकारों” की मदद से “राजपूत इतिहास” को विकृत किया।
राजपूत समाज के बिखराव पर बात करते हुए राघवेंद्र सिंह राजू ने कहा
> “राजपूत शब्द से जुड़े सभी वर्ग — राजा-महाराजा, उमराव, जमींदार या साधारण राजपूत —
अपने को श्रेष्ठ मानने की गलती में उलझे हैं।
अन्य जातियां एकता के बल पर मजबूत हुईं,
जबकि राजपूत समाज छोटे-छोटे उपनामों में बिखर गया।”
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा —
> “मध्य भारत में सोंधिया राजपूत, पटेल राजपूत, पुरबिया राजपूत,
राजस्थान में रावत, भोमिया, राणा, और उत्तर प्रदेश में लोधा, बघेल, शाक्य, सेठवार जैसे उपनाम
‘राजपूत’ शब्द की मूल पहचान से दूर होते गए।”
राजू ने कहा कि 1582 में दिवेर के युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने मुगलों को परास्त किया,
तो मगरा क्षेत्र के राजपूत उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे।
इसी तरह 1971 के भारत-पाक युद्ध में 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण के पीछे लेफ्टिनेंट जनरल सगत सिंह राठौड़ जैसे राजपूत वीरों की भूमिका थी।
राघवेंद्र सिंह राजू ने कहा कि “आज देश को एक मजबूत समाज की जरूरत है, और यह तभी संभव है जब हर छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, राजा-रंक ‘राजपूत’ शब्द के साए में एक हो जाए।” उन्होंने कहा कि यदि जाति गणना होती है तो हर क्षत्रिय को केवल “राजपूत” शब्द का उपयोग करना चाहिए। “यही हमारी पहचान है, यही हमारी शक्ति है,” उन्होंने कहा। “अपनों से दगाबाजी करने वालों को मैंने गैरों के पैरों में गिरते देखा है। इसलिए अब समय है कि हम ‘राजपूत एकीकरण अभियान’ चलाकर समाज और राष्ट्रहित के लिए सर्वस्व समर्पित करने की भावना से आगे बढ़ें।


