फर्रुखाबाद की आयुष भर्ती ने दिखाया कि सत्ता की छाया में पारदर्शिता कैसे दम तोड़ देती है
कभी कहा गया था — “नौकरी योग्यता की पहचान होती है, सिफ़ारिश की नहीं।”
लेकिन फर्रुखाबाद में हुई 12 आयुष चिकित्सकों की नियुक्ति ने इस कथन को उलटकर रख दिया।
यह भर्ती न तो योग्यता का उत्सव थी, न पारदर्शिता की मिसाल यह सत्ता, सिफ़ारिश और रिश्तेदारी का जश्न-ए-भ्रष्टाचार थी।
जब सांसद ने अपनी बेटी को दी सरकारी नियुक्ति
फतेहगढ़ कलेक्ट्रेट सभागार का वह दृश्य शायद इस युग की विडंबना का सबसे सटीक प्रतीक था।
मंच पर सांसद मुकेश राजपूत, बगल में जिलाधिकारी, और उनके सामने नियुक्ति पत्र।
पत्र किसी अनजान प्रतिभाशाली चिकित्सक के हाथ में नहीं गया —
वह गया सांसद की अपनी बेटी आरती देवी के हाथों में।
तालियाँ बजीं।
अपर जिलाधिकारी ने भी ताली बजाई।
लेकिन उस तालियों की आवाज़ में डूब गया योग्यता का आर्तनाद,
जिसे 109 अभ्यर्थी लेकर साक्षात्कार में आए थे।
कई लोग दूर-दराज़ जिलों से उम्मीदों का झोला उठाकर आए थे,
पर लौटे निराशा के साथ, क्योंकि उनके पास पैरवी नहीं थी।
भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’, पर रिश्ता हो तो सब माफ
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बार-बार कहा है — “भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस।”
लेकिन स्थानीय स्तर पर यही नारा अब मज़ाक बन गया है।
फर्रुखाबाद की इस नियुक्ति सूची ने दिखा दिया कि
जब सिफ़ारिश करने वाला नेता हो, तो न टॉलरेंस की ज़रूरत होती है,
न मेरिट की।
सूत्रों के अनुसार, भाजपा पदाधिकारियों, वकीलों, ठेकेदारों और जनप्रतिनिधियों के बेटा-बेटियां सूची में सबसे ऊपर रखे गए।
योग्य उम्मीदवारों को यह कहकर किनारे कर दिया गया कि “नाम ऊपर से आया है।”
यह वही ऊपर है जो लोकतंत्र के शीर्ष पर बैठकर नीचे वालों की मेहनत का अपमान करता है।
‘सबका साथ, सबका विकास’ से ‘सबका साथ, अपना विकास’ तक
भाजपा ने अपने शासन के आरंभ से जो नारा दिया — “सबका साथ, सबका विकास” —
वह इस भर्ती में बदल गया — “सबका साथ, पर अपना विकास।”
फर्रुखाबाद की यह कहानी किसी एक जिले की नहीं, बल्कि उस मानसिकता की है
जहाँ ‘सत्ता’ को अवसर समझा जाता है, जिम्मेदारी नहीं।
जब कोई सांसद अपनी बेटी को नियुक्ति पत्र खुद देकर मुस्कुराता है,
तो यह केवल प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक पतन का प्रतीक है।
क्योंकि सत्ता जब खुद को “न्यायाधीश” भी मान लेती है,
तो लोकतंत्र केवल भाषणों में बचता है, व्यवहार में नहीं।
मेरिट की हत्या, मनमानी का महोत्सव
इस भर्ती में 109 अभ्यर्थियों ने साक्षात्कार दिया था।
इनमें कई ऐसे युवा थे जिन्होंने वर्षों तैयारी की,
आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई में अपना जीवन लगाया,
पर अंततः उन्हें यह एहसास कराया गया कि
“सिस्टम में आपकी जगह नहीं, आपकी सिफ़ारिश मायने रखती है।”
यह केवल नियुक्ति घोटाला नहीं —
यह मेरिट की हत्या है, और उस युवा पीढ़ी के विश्वास पर हमला है
जो यह मानती थी कि मेहनत से रास्ते बनते हैं।
जब अधिकारी भी मौन हों, तो अन्याय सामान्य हो जाता है
इस समारोह में मौजूद अधिकारी, जिलाधिकारी और अन्य प्रशासनिक प्रतिनिधि
कम से कम यह सवाल तो उठा सकते थे कि
सांसद स्वयं अपनी बेटी को नियुक्ति पत्र क्यों दे रहे हैं।
लेकिन नहीं — सबने मुस्कुराते हुए तस्वीरें खिंचवाईं।
यही है वह ‘संवेदनहीन मौन’ जो धीरे-धीरे भ्रष्टाचार को नैतिकता बना देता है।
लोकतंत्र में मौन भी अपराध होता है।
और यहाँ हर मौन व्यक्ति, हर तालियाँ बजाने वाला अधिकारी
उस अन्याय का सहभागी है जो उन योग्य युवाओं के साथ हुआ
जिन्होंने केवल उम्मीद की गलती की थी।
अगर इस कार्यक्रम का नाम “भर्ती समारोह” की जगह
“परिवार सम्मान समारोह” रख दिया जाता,
तो शायद कोई सवाल न उठता।
क्योंकि सूची में नाम देखकर कोई भी समझ सकता है
कि यहाँ योग्यता नहीं, रिश्तेदारी की जड़ों ने परिणाम तय किए।
अब इस घटना की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए।
राज्य स्तर से टीम गठित कर यह देखा जाना चाहिए कि —
चयन समिति के सदस्य कौन थे?
चयन प्रक्रिया में किस आधार पर वरीयता दी गई?
और क्या सभी अभ्यर्थियों के इंटरव्यू रिकॉर्ड उपलब्ध हैं?
यदि यह सिद्ध होता है कि सिफ़ारिश या रिश्तेदारी के आधार पर चयन हुआ,
तो यह न केवल सेवा नियमों का उल्लंघन होगा,
बल्कि लोकतांत्रिक आचारसंहिता का अपमान भी।
फर्रुखाबाद की यह नियुक्ति घटना केवल एक प्रशासनिक गलती नहीं है,
यह एक नैतिक चेतावनी है।
क्योंकि अगर आज नौकरियाँ रिश्तों से मिलेंगी,
तो कल न्याय भी रिश्तों से मिलेगा, और
शायद “लोकतंत्र” का अगला अध्याय वहीं खत्म हो जाएगा।






