– सेन्ट्रल जेल के पास हुई दर्दनाक घटना में दो की मौत
– पर अब तक नहीं मिला मुआवजा — प्रशासन की चुप्पी सवालों के घेरे में
फर्रुखाबाद। जिले की ज़मीन ने एक बार फिर दर्द देखा — और इस बार आग या बाढ़ नहीं, बल्कि मीथेन गैस के रिसाव से हुई एक भयावह दुर्घटना ने दो जिंदगियाँ लील लीं।
घटना स्थल कोई दूरस्थ इलाका नहीं था; यह सेन्ट्रल जेल के पास हुआ हादसा था — शहर के बीचोंबीच, जहाँ हर ओर सरकारी दफ्तर, पुलिस चौकियाँ और प्रशासनिक निगरानी मौजूद रहती है।
फिर भी, जब ज़हरीली गैस ने दो मजदूरों को अपनी चपेट में लिया, तब प्रशासन न तो वहाँ था, और न बाद में उसकी संवेदनाएँ कहीं दिखीं।
घटना के बाद शासन स्तर पर इसे ‘दैवीय आपदा’ की श्रेणी में डाल दिया गया — यानी ऐसी दुर्घटना, जो मानव नियंत्रण से बाहर हो।
पर सवाल यह है कि क्या यह वाकई दैवीय थी?
मीथेन गैस कोई आसमान से उतरी चीज़ नहीं है — यह सीवर लाइन, सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों, और लापरवाही से भरे रखरखाव की उपज है।
अगर समय पर सीवर की जांच होती, गैस लाइनें सुरक्षित रखी जातीं, और श्रमिकों को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध कराए जाते — तो क्या ये मौतें टाली नहीं जा सकती थीं?
जब एक प्रशासन किसी मानवजनित लापरवाही को ‘दैवीय आपदा’ बताकर पल्ला झाड़ लेता है, तो यह केवल जिम्मेदारी से भागना नहीं, बल्कि न्याय से इनकार होता है।
सेन्ट्रल जेल के पास हुई इस दुर्घटना में दो लोगों की मौत हुई।
इनमें से एक परिवार का इकलौता कमाने वाला सदस्य था, जिसकी मृत्यु के बाद उसके घर पर आज भी चूल्हा मुश्किल से जलता है।
लेकिन प्रशासन की ओर से अब तक कोई मुआवजा, कोई सहायता, कोई संवेदना तक नहीं पहुँची।
यह वही प्रदेश है जहाँ आपदाओं के समय मुख्यमंत्री राहत कोष से त्वरित आर्थिक मदद का दावा किया जाता है।
फिर फर्रुखाबाद में यह संवेदना क्यों गायब है?
क्या यह इसीलिए कि पीड़ित किसी प्रभावशाली व्यक्ति के परिवार से नहीं थे?
या इसलिए कि उनके पास कोई मीडिया का दबाव नहीं था?
मीथेन गैस, रासायनिक रिसाव और औद्योगिक अवशिष्ट — ये सब फर्रुखाबाद जैसे तेजी से बढ़ते जिलों के लिए नई चुनौतियाँ हैं।
पर दुर्भाग्य यह है कि हमारे जिले की आपदा प्रबंधन व्यवस्था अब भी केवल कागज़ों में सक्रिय है।
न तो नियमित गैस या सीवर जांच होती है, न ही औद्योगिक इकाइयों से जुड़ी किसी दुर्घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया प्रणाली।
यदि यह हादसा किसी मॉल या निजी फैक्ट्री के भीतर हुआ होता, तो शायद बड़ी-बड़ी घोषणाएँ होतीं, मीडिया दौड़ता, और मुआवजा तुरंत पहुँचता।
लेकिन यहाँ गरीब मजदूरों की मौत को ‘प्राकृतिक दुर्घटना’ कहकर मामला रफा-दफा कर दिया गया।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस दर्दनाक घटना के बाद कोई अधिकारी सामने नहीं आया।
न किसी ने परिवार से मिलकर संवेदना जताई, न ही किसी ने जिम्मेदारी स्वीकार की।
यह चुप्पी केवल असंवेदनशीलता नहीं, बल्कि प्रशासनिक अपराध है।
समाज जब किसी की मौत पर मौन हो जाता है, तो वह अपने मानव होने की पहचान खो देता है।
और जब शासन मौन हो जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा घायल हो जाती है।
अब यह आवश्यक है कि इस घटना को फाइलों में बंद न किया जाए।
राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को इस मामले की पुन: जांच करानी चाहिए,
मृतकों के परिजनों को आपदा राहत कोष से तत्काल आर्थिक सहायता प्रदान की जानी चाहिए,
और संबंधित विभागों से जवाब माँगा जाना चाहिए कि
> “क्यों इस इलाके की मीथेन गैस लाइन या सीवर सिस्टम की नियमित जांच नहीं की गई?”
यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि
भविष्य में ऐसे कार्यस्थलों पर गैस डिटेक्शन यंत्र, ऑक्सीजन मीटर, और सुरक्षा उपकरण अनिवार्य हों।
हर मजदूर को यह अधिकार मिलना चाहिए कि उसकी सुरक्षा किसी दैवीय भरोसे पर न छोड़ी जाए।
यह घटना किसी एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज की असफलता है।
हमने एक बार फिर दो निर्दोष लोगों को खो दिया — और बदले में केवल सरकारी चुप्पी पाई।
जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी कि “गरीब की मौत सस्ती होती है”, तब तक ऐसी घटनाएँ यूँ ही होती रहेंगी।
मीथेन गैस का रिसाव चाहे वैज्ञानिक दृष्टि से ‘प्राकृतिक’ कहलाए, पर नैतिक दृष्टि से यह मानवजनित अपराध है।
यह आग नहीं, यह हमारी व्यवस्था की ठंडक थी — जिसने दो जानें निगल लीं।





