आग ने नहीं, लापरवाही ने जलाया सुकरुल्लापुर वायो डीज़ल प्लांट

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शरद कटियार
जब जिलाधिकारी और एसपी ने मोर्चा संभाला, पर सिस्टम की पुरानी कमियाँ फिर उजागर हो गईं

शनिवार की रात फर्रुखाबाद जिले के नवाबगंज क्षेत्र के ग्राम सुकरुल्लापुर में स्थित एक बायोडीज़ल रिफाइनरी पंप पर लगी भीषण आग ने न केवल पूरे क्षेत्र को दहला दिया, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्थाओं और औद्योगिक सुरक्षा की पोल भी खोल दी।
लगातार फटते छोटे सिलेंडर, आसमान में उठते धुएँ के गुबार, और चारों ओर दहशत का माहौल—यह दृश्य किसी सिनेमाई आपदा से कम नहीं था।
लेकिन यह कोई फिल्म नहीं थी — यह वास्तविक लापरवाही की ज्वाला थी, जिसने हमें एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम दुर्घटनाओं से सबक कब लेंगे।
घटना के तुरंत बाद जिलाधिकारी आशुतोष द्विवेदी और पुलिस अधीक्षक आरती सिंह सहित पूरा प्रशासनिक अमला मौके पर पहुँच गया।
आग की विकरालता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दमकल विभाग की तीन गाड़ियों का पानी कुछ ही देर में समाप्त हो गया, लेकिन आग का तांडव कम होने का नाम नहीं ले रहा था।
इसके बावजूद फायर कर्मियों ने हिम्मत नहीं हारी।
डीएम और एसपी देर रात तक स्वयं राहत और नियंत्रण कार्यों की निगरानी करते रहे, ग्रामीणों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया, और रेलवे प्रशासन से तुरंत संपर्क कर रेल ट्रैक पर पैसेंजर ट्रेन को सुरक्षित निकाला गया।
प्रशासनिक दृष्टि से यह तत्परता सराहनीय है।
एक बड़ी जनहानि को टालने का श्रेय निस्संदेह जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक और फायर कर्मियों को जाता है।
परंतु, हर बार हादसे के बाद केवल बहादुरी की प्रशंसा ही क्यों करनी पड़ती है?
सवाल यह है कि जब यह बायोडीज़ल रिफाइनरी पंप लंबे समय से संचालित हो रहा था, तो क्या कभी फायर सेफ्टी ऑडिट किया गया?
क्या वहां आपातकालीन जल स्रोत या फायर टेंडर की पूर्व व्यवस्था थी?
अगर नहीं, तो यह केवल एक हादसा नहीं, बल्कि सिस्टम की सामूहिक चूक है।
घटना स्थल से महज 200 मीटर की दूरी पर रेलवे ट्रैक गुजरता है।
यह तथ्य अपने आप में चिंता पैदा करने वाला है।
बायोडीज़ल जैसी ज्वलनशील सामग्री का भंडारण इतनी नज़दीकी पर होना रेलवे सुरक्षा नियमों का उल्लंघन है।
तेज़ धमाकों के बीच से गुज़री पैसेंजर ट्रेन किसी चमत्कार से कम नहीं बची।
अगर ज़रा सी चिंगारी रेल लाइन तक पहुँच जाती, तो सैकड़ों जानें जा सकती थीं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या रेलवे प्रशासन ने कभी इस पंप की लोकेशन को लेकर एहतियाती कदम उठाए?
क्या जिला प्रशासन ने कभी इस क्षेत्र को “रेड ज़ोन” घोषित किया?
अगर नहीं, तो यह केवल स्थानीय नहीं बल्कि प्रणालीगत उदासीनता का मामला है।
आग के बाद की भागदौड़ — हमेशा की तरह “बाद में जागना”

भारत में लगभग हर औद्योगिक दुर्घटना का पैटर्न एक जैसा होता है —
पहले लापरवाही, फिर हादसा, उसके बाद अफरातफरी और आखिर में जांच समिति।
कुछ दिनों तक चर्चा, फिर सब कुछ शांत।
न तो दोषियों की जवाबदेही तय होती है, न ही सुरक्षा व्यवस्था में कोई ठोस सुधार होता है।
सुकरुल्लापुर की यह आग भी कहीं उसी सूची में शामिल न हो जाए, इसका डर सच्चा है।
क्योंकि हमारे यहाँ सिस्टम का ध्यान तब तक नहीं जाता जब तक कुछ जल न जाए।
फर्रुखाबाद, जो तेजी से औद्योगिक रूप से विकसित हो रहा है, उसे अब यह समझना होगा कि विकास का मतलब केवल नई फैक्ट्रियाँ नहीं, बल्कि सुरक्षित फैक्ट्रियाँ हैं।
तीन दमकल गाड़ियों का पानी खत्म हो जाना — यह किसी भी जिले के लिए शर्मनाक स्थिति है।
यह सवाल उठाता है कि अगर यह आग किसी बड़े औद्योगिक क्षेत्र या भीड़भाड़ वाले बाज़ार में लगी होती, तो क्या हमारे पास उसे रोकने की क्षमता थी?
अक्सर दमकल विभाग के पास न तो पर्याप्त पानी का स्रोत होता है, न ही आधुनिक उपकरण।
यह विभाग हर साल बजट की कमी और संसाधनों की दयनीयता की शिकायत करता है, पर जब तक कोई त्रासदी न घटे, तब तक किसी को फर्क नहीं पड़ता।
अब समय है कि इस घटना की जांच सिर्फ औपचारिकता न बन जाए।
यह पता लगाना जरूरी है कि —
क्या रिफाइनरी के पास फायर सेफ्टी का वैध प्रमाणपत्र था?
क्या प्रशासन ने कभी इस क्षेत्र का सुरक्षा सर्वे किया?
और सबसे अहम, क्या इस तरह की यूनिट्स के लिए कोई लाइसेंस नवीनीकरण निरीक्षण हुआ था?
अगर जवाब “नहीं” है, तो दोष केवल एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढाँचे का है।
इस ढाँचे को जवाबदेह बनाना ही असली सुधार की दिशा होगी।
सुकरुल्लापुर की आग ने एक बार फिर हमें चेताया है —
हम जितनी तेजी से उद्योग खड़े कर रहे हैं, उतनी ही तेजी से जोखिम भी बढ़ा रहे हैं।
हादसे केवल समाचार नहीं होते; वे उन कमियों की याद दिलाते हैं जिन्हें हमने जानबूझकर अनदेखा किया।
इस घटना में भले ही जनहानि नहीं हुई, पर यह किस्मत का साथ था।
अगली बार शायद यह साथ न मिले।
इसलिए अब ज़रूरत है कि फर्रुखाबाद जिला प्रशासन एक व्यापक सुरक्षा नीति बनाए,
जिसमें सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों की वार्षिक फायर ऑडिट रिपोर्ट अनिवार्य हो,
फायर ब्रिगेड को आधुनिक संसाधनों से लैस किया जाए,
और रेलवे ट्रैक के निकट ज्वलनशील पदार्थों के भंडारण पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए।
यह आग केवल एक स्थान को नहीं, बल्कि हमारी मानसिकता को भी जलाकर गई है —
वह मानसिकता जो सोचती है कि हादसे दूसरों के साथ ही होते हैं।
जब तक हम “घटना के बाद प्रतिक्रिया” की जगह “घटना से पहले तैयारी” नहीं सीखेंगे,
तब तक हर सुकरुल्लापुर किसी नई त्रासदी का नाम बनता रहेगा।

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