बौद्धिक नग्नता: समाज की अनदेखी चुनौती

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शरद कटियार
मनुष्य ने सभ्यता के आरंभ से ही शारीरिक नग्नता को ढकने के लिए वस्त्रों का सहारा लिया। वस्त्र केवल शरीर को ढकने का माध्यम नहीं बने, बल्कि वे संस्कृति, सभ्यता और सामाजिक मर्यादाओं का प्रतीक भी बन गए। लेकिन क्या यही संभव है बौद्धिक नग्नता के साथ? जब विचारों और विवेक की असमर्थता सामने आती है, तो उनके लिए कोई आवरण लगभग अपर्याप्त ही प्रतीत होता है।

शारीरिक नग्नता को समाज अशोभनीय मानता है; इसे देखने में हम हिचकिचाते हैं, इसे छिपाने की तत्काल आवश्यकता महसूस करते हैं। परंतु बौद्धिक नग्नता—अज्ञान, सतही सोच, विवेक की कमी—को हम सहज ही स्वीकार कर लेते हैं। झूठे ज्ञान और अधूरी समझ को, अजीब तरह की सहजता के साथ, समाज अनदेखा कर देता है।
इसका कारण सरल है। हम यथार्थ को उसके नग्न रूप में स्वीकार करने से डरते हैं। सत्य की कठोरता हमें चुभती है, इसलिए हम उसे आवरण में ढक लेते हैं। शरीर की नग्नता हमारी आँखों को झकझोरती है, लेकिन बौद्धिक नग्नता हमारे मन को चुनौती देती है, और मन की यह चुनौती हम अक्सर टाल देते हैं।
सच यह है कि समाज का वास्तविक प्रतिबिंब हमें इन असामान्यताओं में दिखता है। बाहरी रूप पर तो हम ध्यान देते हैं, पर विचारों की गहराई और ज्ञान की स्पष्टता की अनदेखी कर देते हैं। यही कारण है कि सतही सोच और अधूरा ज्ञान अक्सर समाज में प्रभावशाली बन जाता है, जबकि गहरा विचार और सच परेशान करता है।
इसलिए असली प्रगति तभी संभव है जब हम केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि विचारों को भी सुसंस्कृत बनाने का प्रयास करें। बौद्धिक नग्नता शारीरिक नग्नता से कहीं अधिक खतरनाक है, क्योंकि यह समाज की नींव को खोखला कर देती है। हमें हिम्मत करनी होगी—सच को उसके मूल रूप में स्वीकार करने की, और अपने विचारों को ज्ञान और विवेक के वस्त्र पहनाने की।
समाज में यही बदलाव लाएगा एक स्थायी और सशक्त प्रगति।

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