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Tuesday, September 23, 2025

किताबों संग सफर छीना मोबाइल ने: विजय गर्ग

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एक समय था जब रेल यात्राओं का साथी किताबें हुआ करती थीं। स्टेशन की बुकस्टॉल (books) से उपन्यास खरीदकर लोग सफर का आनंद लेते थे। सहयात्रियों से बातचीत होती थी, कहानियां साझा होती थीं। आज मोबाइल स्क्रीन ने वह सब छीन लिया है। अब सफर है, मगर वह रूह नहीं रही।

अहमदाबाद के रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आने में देरी थी। इंतजार के दौरान बेंच पर बैठा व्यक्ति अपने बैग की तरफ हाथ बढ़ाता है, यह सोचते हुए कि टाइम पास करने के लिए मोबाइल निकाले या किताब। फिर दोनों का इरादा छोड़ देता है। अक्सर देखा जाता है कि गाड़ी की प्रतीक्षा या सफर में लोग अपना समय व्यतीत करने के लिए कुछ न कुछ अपने साथ रखते हैं। आज के समय में देखें तो जिस तरफ भी निगाह दौड़ाई जाती है, उसी तरफ लोग अपने-अपने मोबाइल स्क्रीन में नज़रें गड़े हुए होते हैं। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं होता।

ज़िंदगी को दो दशक पहले रिवाइंड किया जाए तो रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म की बुकस्टाल की तरफ लोग तेज़ी से जाते हुए देखे जा सकते थे, ताकि ट्रेन आने से पहले कोई पत्रिका या उपन्यास खरीद सकें और सफर में बोरियत न हो। फिर जब कोई सह-यात्री अख़बार या पत्रिका पढ़ने के लिए मांगे, तो उससे खेल, सियासत या फिल्मों पर अच्छी गुफ़्तगू की शुरुआत भी हो जाती थी। चूंकि ट्रेन पर कैसी भी पत्रिकाएं पढ़ने का अपराध बोध नहीं होता था, इसलिए स्टाल से अक्सर क्राइम या फिल्मों की पत्रिकाएं खरीदी जाती थीं, जिन्हें पढ़कर ट्रेन में ही छोड़ दिया जाता था, अगले यात्री के लिए। गंभीर किस्म के यात्री अख़बार या समाचार पत्रिकाएं खरीदते थे।

ट्रेन के अंदर हर कोई बिना संकोच के एक-दूसरे की खरीदी हुई पत्रिकाएं मांग लेता था। हालांकि ज्योतिष पर किताबें खरीदते हुए कम ही देखा गया, जबकि प्लेटफार्म बुकस्टाल्स पर उनका अच्छा-खासा स्टॉक रहता था। सबसे ज्यादा बिक्री पॉकेटबुक्स की हुआ करती थी। गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा आदि की दुकान रेलवे प्लेटफॉर्म्स की वजह से ही चलती थी। एयरपोर्ट्स पर हेरोल्ड रॉबिन्स, सिडनी शेल्डन, अगाथा क्रिस्टी जैसे लेखक अधिक बिकते थे, क्योंकि वहां स्टेटस की बात होती थी। और सआदत हसन मंटो की ‘बदनाम कहानियां’ तो हर जगह सदाबहार थीं, और आज भी हैं—मोबाइल पर।

आखिर ट्रेन का लंबा सफर कैसे कटता था? खिड़की से खेत-खलिहानों को कितनी देर तक देखा जा सकता था, सह-यात्रियों से कितनी बातें होतीं, घर से लाया हुआ या विभिन्न रेलवे स्टेशनों से खरीदा हुआ खाना कब तक खाया जाता था… तब भी काफी समय बच जाता था, जिसे पढ़कर ही काटा जा सकता था। फिल्म ‘आराधना’ (1969) में शर्मिला टैगोर का वह दृश्य याद आता है, जब दार्जलिंग टॉय ट्रेन में खिड़की की सीट पर बैठकर वह एलिसटियर मैकलीन की ‘व्हेन एट बेल्स टोल’ पढ़ रही थीं। उनका ध्यान कौन भटका सकता था, सिवाय राजेश खन्ना के जो पटरी के समानांतर चलती सड़क पर ओपन जीप में हैं और ‘मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू’ गा रहे हैं। ऐसे सुंदर वातावरण में शर्मिला की हिम्मत थी कि वह जहाजों और समुद्री लुटेरों से संबंधित किताब पढ़ रही थीं।

लोग ट्रेनों में किताबें पढ़ते थे, इस अदा को फिल्मकारों ने भी खूब भुनाया है। ‘अंगूर’ (1982) में ट्रेन के कूपे में संजीव कुमार को वेद प्रकाश कम्बोज की थ्रिलर पढ़ते हुए दिखाया गया है। वह पुस्तक के प्लॉट में इतना अधिक डूब जाते हैं कि जैसे ही कोई उनके कंधे पर हाथ रखता है, तो वह डर के मारे उछल पड़ते हैं और उन्हें लगता है कि हर कोई बदमाश गैंग का हिस्सा है। फिल्म ‘मेरे हुज़ूर’ में जितेंद्र लेडीज डिब्बे में चढ़ जाते हैं, जहां वह पर्दानशीं माला सिन्हा का चेहरा देखने के लिए ‘रुख से ज़रा नकाब हटा दो मेरे हुज़ूर’ गाते हैं।

‘पाकीजा’ के आइकोनिक सीन में राजकुमार सोती हुई मीना कुमारी के मेहंदी लगे पांव में तारीफ का एक पर्चा लिखकर चले जाते हैं कि आपके पांव बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर मत उतारना, मैले हो जायेंगे। मीना कुमारी उस पर्चे को तावीज़ बनाकर हमेशा अपने पास रखती हैं। फिल्म ‘दूर की आवाज़’ में जॉय मुखर्जी और सायरा बानो की मुलाकात और इश्क़ ट्रेन में ही होता है। शाहरुख़ खान और काजोल पहली बार ट्रेन में ही मिलते हैं और फिर ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ ट्रेन में ही लेकर चले जाते हैं।

आज भी लोग ट्रेन के उस सफर को याद करते हैं, जब हाथ में किताब हुआ करती थी और सफर का आनंद एक अलग ही अनुभव होता था। इ.रि.सें.

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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