सरकारी वकीलों की तैनाती – पारदर्शिता ही भरोसे की बुनियाद

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खनऊ हाईकोर्ट का हालिया आदेश उत्तर प्रदेश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। अदालत ने सरकारी वकीलों की नियुक्ति और तैनाती की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठाए हैं और सरकार से विस्तृत जानकारी मांगी है। यह कदम केवल एक कानूनी पहलू नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता से जुड़े गहरे सवालों की ओर इशारा करता है।
वर्तमान विवाद की जड़ 1975 का एलआर (लीगल रेमेडीज़) मैनुअल है, जिसके तहत सरकारी वकीलों की तैनाती की जाती है। लगभग पाँच दशक पहले बना यह मैनुअल आज की जरूरतों और परिस्थितियों से मेल नहीं खाता। न्याय व्यवस्था में तेजी से आ रहे बदलाव, मुकदमों की जटिलता और जनता की अपेक्षाएँ अब कहीं अधिक बड़ी हो चुकी हैं। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि पुराने ढाँचे को बदलने और उसमें सुधार की आवश्यकता महसूस की जाए।
याचिकाकर्ताओं ने अदालत के सामने यही तर्क रखा है कि नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। आरोप यह है कि चयन मेरिट और योग्यता के बजाय सिफारिशों और राजनीतिक प्रभाव के आधार पर हो रहा है। यदि इस पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो इससे न केवल न्याय प्रणाली की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगेगा बल्कि सरकार की मंशा पर भी संदेह गहराएगा। यह भी सच है कि सरकारी वकील केवल सरकार के प्रतिनिधि नहीं होते, बल्कि वे न्यायालय के समक्ष जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले अहम स्तंभ होते हैं।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सरकार नियुक्ति की प्रक्रिया और मापदंड का विस्तृत ब्यौरा पेश करे। यह केवल औपचारिक जवाब भर नहीं होना चाहिए, बल्कि एक ठोस नीति दस्तावेज होना चाहिए जिसमें यह स्पष्ट हो कि किस आधार पर नियुक्तियाँ की जाती हैं, चयन में पारदर्शिता कैसे सुनिश्चित की जाती है और जवाबदेही किस पर होगी। आगामी 22 सितंबर की तारीख सरकार के लिए केवल अदालत में पेश होने की बाध्यता नहीं, बल्कि अपनी नीयत और दृष्टिकोण स्पष्ट करने का अवसर भी है।
सरकार के सामने सबसे बड़ा विकल्प यही है कि वह एक नई प्रणाली विकसित करे। इसमें नियुक्ति प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जाए, स्पष्ट मानक तय हों, ऑनलाइन आवेदन और चयन प्रणाली अपनाई जाए, और एक स्वतंत्र चयन समिति बने जिसमें न्यायपालिका और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों की भागीदारी हो। यदि नियुक्तियाँ मेरिट आधारित होंगी, तो वकीलों की योग्यता और प्रदर्शन पर सवाल नहीं उठेंगे और जनता का विश्वास भी मजबूत होगा।
सरकारी वकीलों की तैनाती की प्रक्रिया केवल सरकारी नौकरशाही का हिस्सा नहीं, बल्कि न्यायपालिका की रीढ़ है। यदि यह रीढ़ कमजोर होगी, तो न्याय व्यवस्था की पूरी इमारत डगमगा सकती है। इसलिए अब समय आ गया है कि सरकार पुरानी परंपराओं को छोड़कर नई पारदर्शी व्यवस्था लागू करे। यही कदम न्यायपालिका और जनता दोनों का विश्वास अर्जित करेगा।
लखनऊ हाईकोर्ट की पहल से यह उम्मीद जगी है कि अब इस दिशा में ठोस सुधार होंगे। सरकार को चाहिए कि वह मामले को केवल कानूनी जवाब तक सीमित न रखे, बल्कि इसे न्यायिक सुधार के एक बड़े अवसर के रूप में देखे। यही न्याय और शासन की साख को मजबूत करने का सबसे उचित मार्ग है।

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