छप्पर और खपरैल के घर : सुकून नहीं, संघर्ष की कहानी

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इंजी सुनील वर्मा
चीफ इंजीनियर मर्चेंट नेवी

आजकल सोशल मीडिया पर अक्सर एक ट्रेंड देखने को मिलता है। लोग छप्पर, खरपतवार और खपरैल से बने पुराने घरों की तस्वीरें डालकर उसमें रहने के सुकून, शांति और सादगी की बातें करते हैं। लेकिन यह तस्वीरें और बातें अक्सर उन लोगों की होती हैं जिन्होंने इन घरों के भीतर का संघर्ष नहीं देखा। जिन्होंने इसे केवल एक फैंटेसी या रोमांटिक अहसास के तौर पर समझा।हकीकत यह है कि इन घरों में रहने वालों की जिंदगी सुकून की नहीं, बल्कि संघर्ष की दास्तां है। उन लोगों से पूछिए जिन्होंने गर्मियों की तपती रातें इस डर में काटी हैं कि कहीं चिंगारी से छप्पर जल न जाए। जिन्होंने आँधी में चूल्हा जलाना बंद कर दिया ताकि आग न फैल जाए। रातों में बिना बिजली, ढिबरी बुझाकर अंधेरे में सोने की मजबूरी ही उनका जीवन रहा है।बरसात के मौसम में इन घरों की छतें जगह जगह से टपकती हैं। लोग भगोने और कड़ाही रखकर टपकते पानी को रोकते हैं, लेकिन कभी कभी उन्हें भूखे रहकर बारिश रुकने का इंतजार करना पड़ता है। पड़ोसी के पक्के मकान में बच्चे छत पर खेलते हैं और छत पर अनाज सुखाते हैं, जबकि इन्हीं घरों के बच्चे अपने पिता से पूछते हैं,हम कब छत पर खेलेंगे,उस वक्त एक पिता का लाचारपन उसकी आँखों में साफ झलकता है।खपरैल टूट जाए तो सवाल यह उठता है कि मरम्मत कराई जाए या बच्चे की फीस भरी जाए,पत्नी को साड़ी दिलाई जाए या शादी ब्याह के लिए जरूरी इंतजाम किए जाएं, या फिर साहूकार का कर्ज चुकाया जाए, यही वह जद्दोजहद है जिसमें इन घरों के मुखिया रातें करवट बदलते हुए काटते हैं।बंदरों के झुंड से टूटे खपरैल केवल ईंट और मिट्टी का नुकसान नहीं होते, बल्कि वे उस परिवार की टूटती हुई उम्मीदों की तरह होते हैं। ऐसे घरों में गरीबी, विपन्नता, लाचारी और समाज से विलग एक गहरी एकाकीपन पलता है। लेकिन यही घर उम्मीदों का जन्म भी देते हैं। यही घर बच्चों के सपनों को पालते हैं कि एक दिन वे हालात बदल देंगे।यही झोपड़ियां और खपरैल के घर समाज को वह सूरमा देते हैं जो अपने पिता के हालात बदलते हैं। यही बच्चे बड़े होकर गरीबी को मुंह चिढ़ाते हैं और शहर के बंगलों के सामने खड़े होकर कहते हैं
देख, गरीबी तेरा मुंह काला हो गया।

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