आलू बुवाई से पहले किसान खाद और दस्तावेज़ के लिए भटक रहे
फर्रुखाबाद: सहकारिता आंदोलन की रीढ़ कही जाने वाली साधन सहकारी समितियां (Cooperative societies) इस समय गंभीर संकट से गुजर रही हैं। सचिवों की भारी कमी ने समितियों की कार्यप्रणाली को लगभग ठप कर दिया है, जिसका सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है। जनपद Farrukhabad में कुल 70 साधन सहकारी समितियां हैं, लेकिन सचिव मात्र 37 ही बचे हैं और आगामी माह तीन सचिव और सेवानिवृत्त हो जाएंगे। ऐसे में कई समितियां बिना प्रभारी के रह जाएंगी और एक-एक सचिव को कई समितियों का बोझ उठाना पड़ेगा।
इस कमी का सबसे ज्यादा खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। आलू बुवाई का सीजन नजदीक है और किसानों को समय से खाद की जरूरत है, लेकिन समितियों में सचिव न मिलने के कारण किसान बार बार चक्कर लगाने को मजबूर हैं। कई समितियों पर तो वर्षों से ताले लटक रहे हैं, जहां कभी किसानों की भीड़ खाद लेने उमड़ती थी, वहां अब सन्नाटा छाया है। सचिवों की अनुपस्थिति के कारण किसानों के कृषि ऋण और खाद वितरण से जुड़े दस्तावेज तक समय पर तैयार नहीं हो पा रहे, जिसके चलते किसान सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से वंचित हो रहे हैं। मजबूरी में उन्हें बाजार से महंगे दाम पर खाद खरीदनी पड़ रही है।
ग्राम उस्मानगंज के किसान प्रवीन कटियार बताते हैं कि आलू की बुवाई सिर पर है, लेकिन समिति में सचिव ही नहीं मिल रहे। चार दिन से खाद के लिए चक्कर काट रहा हूं, पर सुनवाई नहीं हो रही। अब बाजार से ऊंचे दाम पर खाद लेना पड़ रहा है।यही हाल अन्य किसानों का भी है। समितियों पर स्थायी कर्मचारी तक नहीं हैं और काम चलाने के लिए देहाड़ी मजदूर रखे गए हैं, जिनकी कोई जवाबदेही नहीं है। किसान नेताओं का कहना है कि सरकार जब आरबीआई जैसी सख्ती से नियम लागू करती है तो समितियों को भी मजबूत ढांचा देना चाहिए।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि समय रहते स्थायी सचिवों की नियुक्ति नहीं की गई तो आलू बुवाई बुरी तरह प्रभावित होगी और किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। किसानों और सहकारिता विभाग के कर्मचारियों ने मांग की है कि प्रत्येक समिति पर प्रशिक्षित सचिव और स्थायी कर्मचारी की नियुक्ति हो, ताकि किसानों को समय पर खाद, बीज और कागजी कार्यवाही की सुविधा मिल सके। कुल मिलाकर सचिवों की भारी कमी ने सहकारी समितियों को खोखला कर दिया है और यदि हालात ऐसे ही रहे तो किसानों की परेशानियां बढ़ती जाएंगी और सहकारिता आंदोलन की रीढ़ कही जाने वाली ये संस्थाएं अपने अस्तित्व के लिए जूझती नजर आएंगी।