जब संरक्षक ही बन जाएँ भ्रष्टाचार के पोषक

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खनऊ में राज्य कर विभाग के अपर आयुक्त अरुण शंकर राय का निलंबन और तीन अन्य अफसरों पर कार्रवाई की खबर ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं। नोएडा में तैनाती के दौरान बिल्डरों को अनुचित लाभ पहुँचाने और वित्तीय अनियमितताओं में लापरवाही बरतने के गंभीर आरोप कोई साधारण बात नहीं है। यह केवल एक अधिकारी का व्यक्तिगत अपराध नहीं, बल्कि पूरे प्रशासनिक ढांचे की विफलता का प्रमाण है।
बिल्डरों को फायदा पहुँचाने का मतलब सिर्फ किसी कारोबारी की जेब भरना नहीं है। यह सीधे तौर पर सरकारी राजस्व की चोरी है और अंततः जनता के हिस्से की सुविधाओं पर डाका डालना है। जब करोड़ों-अरबों की टैक्स वसूली में अनियमितताएँ होती हैं, तो वही पैसा जनता की बुनियादी ज़रूरतों – सड़क, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य – से कट जाता है। सवाल यह है कि ऐसे अधिकारियों को किस आधार पर जिम्मेदारी के पदों पर तैनात किया जाता रहा?
यह मानना मुश्किल है कि इस स्तर की अनियमितताएँ बिना वरिष्ठ अधिकारियों या राजनीतिक संरक्षण के लंबे समय तक चल सकती हैं। यदि एक अपर आयुक्त वर्षों तक बिल्डरों को लाभ पहुँचा रहा था, तो विभागीय ऑडिट, सतर्कता और उच्चाधिकारियों की समीक्षा कहाँ थी? क्या यह माना जाए कि या तो निगरानी तंत्र सोया हुआ था या फिर उसने आँखें मूँद लेना ही अपने लिए सुरक्षित समझ लिया था?
अरुण शंकर राय का निलंबन एक जरूरी कदम है, लेकिन यह केवल “फौरी कार्रवाई” है। जब तक ठोस जांच, कठोर दंड और संपूर्ण पारदर्शिता नहीं होगी, तब तक यह कार्रवाई महज औपचारिकता ही रहेगी। जनता अब सिर्फ निलंबन की सुर्खियाँ नहीं चाहती, बल्कि चाहती है कि दोषियों को कड़ी सजा मिले और उनके संरक्षकों की भी जवाबदेही तय हो।
यह घटना इस बात का भी संकेत है कि राज्य कर विभाग समेत तमाम राजस्व विभागों में सिस्टमेटिक रिफॉर्म की तत्काल आवश्यकता है।

नियुक्तियों और तैनातियों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी।
भ्रष्टाचार के मामलों में समयबद्ध जांच और जनता के सामने रिपोर्ट अनिवार्य की जानी चाहिए।

सबसे महत्वपूर्ण यह कि राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होकर विभाग को काम करने दिया जाए।
लोकतंत्र में सरकार और प्रशासन की सबसे बड़ी पूंजी जनता का विश्वास होता है। जब अधिकारी सत्ता और नियमों का दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं, तो यह विश्वास सबसे पहले टूटता है। यदि शासन इस विश्वास को बनाए रखना चाहता है, तो उसे केवल निलंबन पर नहीं रुकना चाहिए, बल्कि दोषियों को सजा दिलाकर उदाहरण पेश करना चाहिए।
सवाल केवल यह नहीं है कि अरुण शंकर राय और उनके सहयोगियों ने क्या किया, बल्कि बड़ा सवाल यह है कि यह सब इतने लंबे समय तक चलता कैसे रहा? भ्रष्टाचार की इस श्रृंखला में सिर्फ कुछ अधिकारी नहीं, बल्कि पूरा सिस्टम कठघरे में है। यदि सरकार और विभाग वास्तव में ईमानदारी और पारदर्शिता का दावा करते हैं, तो उन्हें इस मामले को मिसाल बनाना होगा – ताकि आने वाले समय में कोई अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करने से पहले सौ बार सोचे।

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