✍️ शरद कटियार
सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई केवल एक कानूनी बहस भर नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की उस गहरी पड़ताल है जिसमें राज्यपाल (Governor) की भूमिका, उनकी शक्तियाँ और केंद्र-राज्य संबंधों का भविष्य जुड़ा हुआ है। संविधान (Constitution) निर्माताओं ने राज्यपाल को एक “सहज सेतु” के रूप में सोचा था—एक ऐसा संवैधानिक पद जो राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच सामंजस्य बनाए, न कि टकराव पैदा करे। लेकिन व्यवहार में इस पद को अक्सर विवादों और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों में उलझा दिया गया।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सीधे तौर पर यह सवाल उठाया कि आज़ादी के 75 साल बाद भी क्या हम उस परिकल्पना पर खरे उतर पाए हैं जिसे संविधान सभा ने देखा था? राज्यपाल को कई बार “राजनीतिक शरण” का ठिकाना बताकर आलोचना हुई। यह आलोचना इसलिए भी प्रबल होती रही है क्योंकि बदलती सरकारों ने राज्यपाल की नियुक्ति को अक्सर “पार्टीनिष्ठ” लोगों के लिए एक पुरस्कार की तरह इस्तेमाल किया।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का कहना था कि राज्यपाल पद को इस तरह संकुचित नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। यह पद अपनी जगह संवैधानिक जिम्मेदारी और संतुलन की कसौटी पर खरा उतरने की अपेक्षा रखता है। परंतु प्रश्न यह है कि व्यवहार में क्या ऐसा हो पा रहा है?
यह पूरा मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए संदर्भ से जुड़ा है। राष्ट्रपति ने पूछा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट यह तय कर सकता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधानसभाओं से पास हुए बिलों पर समयबद्ध निर्णय लेना चाहिए। यह सवाल केवल प्रक्रिया का नहीं है, बल्कि शासन व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता का मूल प्रश्न है।
तमिलनाडु मामले में अदालत पहले ही कह चुकी है कि राष्ट्रपति को राज्यपाल से भेजे गए बिल पर तीन महीने में फैसला लेना होगा। यह व्यवस्था राज्यपाल के अधिकारों पर एक व्यावहारिक सीमा तय करती है, लेकिन केंद्र सरकार को इसमें “संविधान में हस्तक्षेप” का खतरा दिखता है। यह विरोधाभास दरअसल भारतीय संघीय ढांचे की सबसे बड़ी चुनौती को सामने लाता है—केंद्र और राज्यों के बीच वास्तविक संतुलन।
केंद्र का तर्क है कि अगर सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय करता है तो यह न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका के क्षेत्र में दखल होगा और तीनों अंगों के बीच टकराव पैदा करेगा। लेकिन अदालत का कहना है कि वह किसी राज्य या विशेष विवाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ संवैधानिक और कानूनी पहलुओं पर विचार कर रही है। यहाँ सवाल यह है कि क्या बिना किसी समय सीमा के राज्यपालों को बिल लंबित रखने का अधिकार लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पंगु नहीं बना देता?
इस सुनवाई से यह तय होगा कि आने वाले समय में राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका किस तरह परिभाषित होगी। क्या सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक व्याख्या कर यह सुनिश्चित करेगा कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित न हो? या फिर यह बहस आगे भी राजनीतिक विवादों में उलझी रहेगी?
भारत जैसे विशाल संघीय लोकतंत्र में राज्यपाल की भूमिका केवल “औपचारिक” नहीं हो सकती। उन्हें संविधान के संरक्षक की तरह काम करना होगा, न कि किसी दल विशेष की सुविधा के लिए। यह सुनवाई केवल कानूनी पहलू तक सीमित नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर भी एक ऐतिहासिक अवसर है।
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप