राष्ट्रपति के संदर्भ पर विचार, अदालत ने उठाए संवैधानिक सवाल
प्रशांत कटियार
नई दिल्ली: Supreme Court में बुधवार को संविधान (constitution) और राज्यपाल (governor) की भूमिका से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई हुई। पांच जजों की संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस बी. आर. गवई कर रहे हैं, ने यह सवाल उठाया कि क्या स्वतंत्रता के बाद से देश ने संविधान निर्माताओं की उस परिकल्पना को पूरा किया है जिसमें राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच सामंजस्य और परामर्श की व्यवस्था की गई थी।
पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी. एस. नरसिम्हा और ए. एस. चंद्रचूड़ शामिल हैं। सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र की ओर से दलील दी कि संविधान सभा में राज्यपाल की नियुक्ति और शक्तियों पर विस्तृत बहस हुई थी। उन्होंने माना कि राज्यपाल पद को कई बार “राजनीतिक शरण” का ठिकाना कहकर आलोचना की जाती है, लेकिन वास्तविकता में यह संवैधानिक जिम्मेदारियों और निश्चित शक्तियों से जुड़ा हुआ पद है।
यह मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए संदर्भ से जुड़ा है। राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगी है कि क्या न्यायालय यह तय कर सकता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधानसभाओं से पारित बिलों पर निश्चित समय सीमा के भीतर निर्णय लेना चाहिए। अपने संदर्भ पत्र में राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़े कुल 14 सवाल उठाए हैं।
गौरतलब है कि 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु मामले में ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल से भेजे गए बिल पर तीन महीने में निर्णय लेना होगा। यह पहली बार था जब इस प्रक्रिया के लिए समय सीमा तय की गई।
हालांकि केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि अगर अदालत राज्यपाल या राष्ट्रपति पर समय सीमा तय कर देती है तो यह संविधान की बुनियादी व्यवस्था में हस्तक्षेप होगा और कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव पैदा हो सकता है।
अदालत ने स्पष्ट किया है कि वह इस मामले में केवल संवैधानिक और कानूनी पहलुओं पर ही विचार करेगी, न कि किसी राज्य या विशेष विवाद पर। अगली सुनवाई में यह तय हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका को लेकर कोई नई संवैधानिक व्याख्या सामने रखेगा।