नोएडा की शारदा यूनिवर्सिटी से आई खबर ने एक बार फिर हमें झकझोर कर रख दिया है। बीटेक छात्र शिवम् डे ने हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर अपनी जान दे दी। लेकिन इस घटना को केवल एक और आत्महत्या कहकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि शिवम् ने अपने अंतिम पत्र में हमारी शिक्षा प्रणाली की खामियों को उजागर किया है।
उसके सुसाइड नोट की पंक्तियाँ — “अगर देश महान बनना चाहता है तो वास्तविक शिक्षा प्रणाली से शुरुआत करें… मैं यह तनाव और दबाव नहीं झेल सकता” — न केवल दिल दहला देने वाली हैं, बल्कि एक गंभीर चेतावनी भी हैं। यह चेतावनी है कि हमारा वर्तमान शिक्षा ढांचा छात्रों के भविष्य निर्माण के बजाय, उन्हें मानसिक दबाव और अवसाद की ओर धकेल रहा है।
आज हमारे शिक्षण संस्थान अंकों और डिग्रियों की फैक्ट्री बन चुके हैं। हर छात्र से अपेक्षा की जाती है कि वह एक तयशुदा साँचे में ढल जाए, भले ही उसकी रुचि, क्षमता और व्यक्तित्व अलग क्यों न हो। नतीजा यह होता है कि कई छात्र असफलता के बोझ तले टूट जाते हैं।
शिवम् की आत्महत्या केवल व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, यह हमारी शिक्षा नीति और सामाजिक दृष्टिकोण पर एक सामूहिक सवाल है। आखिर क्यों हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय छात्रों को मानसिक रूप से सहारा देने के बजाय, उन्हें और दबाव में डाल रहे हैं?
जरूरत है कि हम शिक्षा प्रणाली को केवल अंकों और रोजगार तक सीमित न रखकर, उसे जीवन-कौशल, मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत विकास के साथ जोड़ें। शिक्षकों और अभिभावकों को भी यह समझना होगा कि हर बच्चा “सर्वश्रेष्ठ” नहीं बन सकता, लेकिन हर बच्चा “अद्वितीय” जरूर होता है।
सरकार, विश्वविद्यालय और समाज—तीनों को मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे। मानसिक स्वास्थ्य परामर्श, छात्रों के लिए सुरक्षित और सहयोगी माहौल, और शिक्षा प्रणाली में मानवीय संवेदनाओं का समावेश—ये अब विकल्प नहीं, बल्कि आवश्यकता हैं।
शिवम् का सुसाइड नोट एक सवाल है, और यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि इसका जवाब खोजें।