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Monday, August 18, 2025

रिश्तों की डोर और आखिरी रक्षाबंधन .. अजय कुमार

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कहानी है एक मध्यम और उच्च मध्यम परिवार की जहां सभी सदस्य अपने-अपने शहरों में अपनी जिंदगी की व्यवस्थाओं में व्यस्त हैं। जिंदगी में शायद ही अपनों से मिलने के लिए वक्त मिल पाता हो। रक्षाबंधन (Rakshabandhan) से कुछ दिन पहले ही घर में हल्की-सी हलचल थी। मैं डाइनिंग टेबल पर रखे gifts को बार-बार देख रहा था। पटना वाली बुआ जी का पैकेट जिसमें चॉकलेट, कपड़े, साड़ी फिर जमशेदपुर वाली बुआ जी का बड़ा पार्सल महंगे खिलौने, ब्रांडेड कपड़े और इन सब सेअलग एक कोने में पड़ा जया बुआ जी का साधारण सा लिफ़ाफ़ा।

मम्मी ने उसे टेबल पर रखते हुए हल्की-सी मुस्कान दी “लो, जया दीदी की राखी भी आ गई”। मैं जानता था, उसमें क्या होगा, पाँच राखियाँ, रोली-चावल का छोटा पुड़िया, और पचास का एक नोट। पापा ने घर आते ही चारों पैकेट देखे, और उनकी नज़र जैसे उसी लिफ़ाफ़े पर टिक गई। “गायत्री… इस बार रक्षाबंधन हम जया दीदी के घर जाकर मनाएंगे।” मम्मी ने चौंककर कहा “पर… वहाँ हमारी खातिरदारी कैसे होगी? तुम्हें पता है, उनके घर की हालत…”। पापा बस मुस्कुरा दिए, पर उनकी आँखों में कुछ ऐसा था, जिसे कोई टाल नहीं सकता था।

रक्षाबंधन की सुबह, हम सभी पैसेंजर ट्रेन से रोहतास पहुँचे। घर के बाहर नल के नीचे बुआ जी कपड़े धो रही थीं। घिसी-पिटी साड़ी, बिखरे बाल, आँखों के नीचे गहरे साए, और चेहरे पर वो झुर्रियाँ… जो उम्र से नहीं, हालात से आई थीं। पापा कुछ पल वहीं खड़े रहे, फिर आगे बढ़कर बोले “जया…!” बुआ ने ऊपर देखा… हाथ रुक गए… और अगले ही पल पापा के गले से लग गईं। भैय्य्या…? आआप…? अचानक…?” आवाज़ काँप रही थी, मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे, आँखों में आश्चर्य और खुशी झलक रही थी जिससे आंख भर आई थीं।

पापा ने हँसकर कहा हां जया बस, सोचा इस बार राखी तुम्हारे घर बाँधूँगा।” हम मिठाइयाँ, नमकीन, कपड़े, और ढेर सारा सामान रास्ते में पहले से ही खरीद कर रख लिए थे। मम्मी किचन संभालने लगीं, और पापा बुआ के पास बैठकर बचपन की बातें करने लगे। चाय नाश्ते के बाद मां और बुआ जी के साथ हम लोग माल गए और वहां पर घर के लिए ढेर सारी शॉपिंग की, रेस्टोरेंट में बैठकर खाया पिया गया। बुआ जी जिनकी हालत कुछ ऐसी थी कि सोचने समझने की शक्ति वह खो बैठी थी यह सब कुछ वह दिवास्वप्न के समान प्रतीत हो रहा था। शाम होते-होते घर की सजावट बदल गयी। नए पर्दे, नई चादर, रसोई में भरा सामान, और बुआ के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान…। पर आँखों में अभी भी डर था कि मानो ये सपना कभी भी टूट सकता है।

लेकिन अभी और सरप्राइज होना बाकी था। जैसे ही बुआ राखी बाँधने लगीं, पापा ने रोक दिया “ज़रा ठहरो… तुम्हारी दूसरी बहनें भी आ रही हैं।” कि तभी दरवाज़े पर हॉर्न की आवाज़ आई, और तीनों बुआएँ अपने परिवार के साथ भीतर आ गईं। “जया… नीलम बुआ ने गले लगाते ही कहा, और जया बुआ फूट-फूटकर रो पड़ीं। बरसों का अकेलापन, उस एक आलिंगन में बह गया। राखियाँ बंधीं, हँसी-ठिठोली हुई, और रात को सबने साथ में खाना खाया।

लेकिन कहते हैं ना की जिंदगी भी जब एक साथ अचानक इतनी खुशियां देती है तो दूसरे ही क्षण कब वह वापस ले ले इसका कोई भरोसा नहीं और यह कोई नहीं जानता। रात में आँगन में सबने चादर बिछाई। जया बुआ पापा से चिपककर लेट गईं। जैसे बरसों से इस पल का इंतज़ार हो। बातों का जो सिलसिला चला वह थमने का नाम ही नहीं ले रहा था, लेकिन धीरे-धीरे बातें थम गईं… और अचानक पापा ने महसूस किया, अचानक चीखते हुए जोर से बोले… “जया… तुम्हारा हाथ इतना ठंडा क्यों है?” सब जाग गए, पर बुआ… अब सिर्फ़ एक सुकून भरी मुस्कान के साथ, हमेशा के लिए सो चुकी थीं। शायद वो इतने दिनों से बीमार थीं, पर किसी से कहा नहीं… शायद वो बस इसी दिन का इंतज़ार कर रही थीं अपनों के बीच आख़िरी साँस लेने का इंतज़ार। उस साल की राखी हमारे लिए त्योहार नहीं, बल्कि जया बुआ जी की आख़िरी मुस्कान की याद बन गई।

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