शरद कटियार
उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में धर्मांतरण के गोरखधंधे का अड्डा आखिरकार जमींदोज कर दिया गया। जलालुद्दीन उर्फ छांगुर बाबा की वह आलीशान कोठी, जो वर्षों से अंधविश्वास, विदेशी फंडिंग और गैरकानूनी गतिविधियों की छाया में फल-फूल रही थी — अब मलबे में तब्दील हो चुकी है। प्रशासन की इस निर्णायक कार्रवाई ने यह संदेश दिया है कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, और आस्था के नाम पर छल का खेल अब बर्दाश्त नहीं होगा। लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होते।
छांगुर बाबा जैसे लोग समाज की उस नब्ज पर वार करते हैं जहां धर्म और विश्वास की सीमा रेखा धुंधली हो जाती है। धर्मांतरण, अवैध कब्जा और विदेशी फंडिंग के गंभीर आरोप किसी अकेले व्यक्ति की करतूत नहीं हो सकते — यह एक संगठित जाल है, जिसे वर्षों से संरक्षण मिला है, नजरअंदाज किया गया है या जानबूझकर अनदेखा किया गया है।
कोठी गिराना एक जरूरी कदम था, लेकिन उससे भी जरूरी है उन संपर्कों की शिनाख्त जो इस पूरे खेल के साझेदार रहे हैं — चाहे वे प्रशासनिक ढील देने वाले हों या वित्तीय पोषण करने वाले। नीतू जैसे सहयोगी, जिनके नाम पर संपत्ति दर्ज की गई, वे भी जांच के दायरे में आने चाहिएं।
प्रशासन ने समयबद्ध कार्रवाई करते हुए सात दिन की चेतावनी के बाद बुलडोजर चलाया। यह न सिर्फ कानून का पालन है, बल्कि एक प्रतीकात्मक संदेश भी है कि अब उत्तर प्रदेश में ‘छद्म बाबाओं’ की दुकानों पर ताले लगेंगे। साथ ही, यह भी जरूरी है कि इस मामले की वित्तीय जांच, साइबर ट्रैकिंग और राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिये से मूल्यांकन किया जाए, ताकि पूरी सच्चाई सामने आ सके।
धर्मांतरण आज केवल धार्मिक मुद्दा नहीं है, यह सामाजिक अस्थिरता और राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान पर सीधा हमला है। इसे भावनात्मक रूप से नहीं, तथ्यों और कठोर कानूनों के सहारे जड़ से उखाड़ना होगा।
छांगुर बाबा का किला गिर गया — अच्छा हुआ।
अब ज़रूरत है उन दीवारों को गिराने की, जो समाज को बांटने और गुमराह करने वालों को छांव देती हैं।
