कानपुर—उत्तर प्रदेश का औद्योगिक और शैक्षणिक हब—इन दिनों एक अभूतपूर्व प्रशासनिक संकट का सामना कर रहा है। यह संकट किसी बाहरी आपदा का परिणाम नहीं, बल्कि जिले के दो शीर्ष अधिकारियों—जिलाधिकारी (डीएम) जितेंद्र प्रताप सिंह और मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) डॉ. हरिदत्त नेमी—के बीच उपजे टकराव का नतीजा है। जहां एक ओर डीएम ने सीएमओ पर भ्रष्टाचार और प्रशासनिक लापरवाही जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं, वहीं दूसरी ओर सीएमओ खुद को एक ‘ईमानदार और पारदर्शी अधिकारी’ के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जिनके खिलाफ षड्यंत्र किया जा रहा है।
यह पूरा प्रकरण सिर्फ एक व्यक्ति विशेष की छवि धूमिल करने या उसे बचाने की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह मामला हमारे प्रशासनिक ढांचे, जवाबदेही, और राजनीतिक हस्तक्षेप के जटिल समीकरणों को उजागर करता है। इससे स्वास्थ्य व्यवस्था और जनहित से जुड़े सवाल भी खड़े हो रहे हैं।
यह विवाद तब शुरू हुआ जब जिलाधिकारी जितेंद्र प्रताप सिंह ने प्रमुख सचिव, चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग को पत्र लिखकर सीएमओ को तत्काल हटाने की सिफारिश की। डीएम के अनुसार, सीएमओ ने कई मोर्चों पर लापरवाही बरती:
डीएम का आरोप है कि सीएमओ को जिले के स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली के संबंध में निर्देश दिए गए थे, मगर उन्होंने न तो उन पर कोई कार्रवाई की और न ही फॉलोअप किया।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत खाली पदों का विज्ञापन सार्वजनिक नहीं किया गया। साक्षात्कार के बाद परिणाम नहीं जारी किए गए।
सबसे चौंकाने वाला आरोप यह है कि सिर्फ 10 दिनों के भीतर एक ही डॉक्टर का नौ बार तबादला किया गया। यह अपने आप में प्रशासनिक अनियमितता और कार्यदक्षता पर सवाल खड़े करता है।
वित्तीय कार्यों में गड़बड़ी
वित्तीय कार्यों की ज़िम्मेदारी डॉ. वंदना सिंह से हटाकर ऐसे व्यक्ति को दी गई जिसकी पृष्ठभूमि गैर-आर्थिक थी।
डीएम ने सीधे-सीधे सीएमओ की कार्यशैली को ‘भ्रष्ट और दिशाहीन’ करार दिया।
इस प्रकरण ने एक नया मोड़ तब लिया जब सोशल मीडिया पर एक कथित ऑडियो वायरल हुआ, जिसमें सीएमओ के चालक सूरज द्वारा डीएम के खिलाफ अपशब्द कहे जा रहे हैं। सीएमओ का कहना है कि यह ऑडियो ‘एआई जेनरेटेड’ है—यानी किसी कृत्रिम बुद्धिमत्ता तकनीक से छेड़छाड़ कर तैयार किया गया है।
हालांकि, इस दावे की तकनीकी पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। और न ही पुलिस को इस संबंध में कोई आधिकारिक तहरीर मिली है। यह सवाल उठता है कि यदि यह क्लिप वास्तव में नकली है, तो सीएमओ प्रशासनिक और कानूनी स्तर पर तुरंत कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे?
इस मुद्दे ने न सिर्फ अधिकारियों के बीच अविश्वास की खाई को और गहरा किया है, बल्कि प्रशासन की साइबर सुरक्षा और तकनीकी जवाबदेही पर भी सवाल खड़े किए हैं।
विवाद को राजनीतिक हवा उस समय मिली जब विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना ने उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक को पत्र लिखकर सीएमओ के पक्ष में हस्तक्षेप की मांग की। उनका कहना है कि डॉ. नेमी एक सख्त और ईमानदार अधिकारी हैं, जिनके खिलाफ दुर्भावनावश अभियान चलाया जा रहा है।
यह पहली बार नहीं है जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में राजनीतिक ताकतें प्रशासनिक निर्णयों पर प्रभाव डालने की कोशिश कर रही हों। लेकिन जब यह हस्तक्षेप विधानसभा अध्यक्ष के स्तर से हो, तब यह तटस्थ प्रशासन की परिकल्पना को गहरा धक्का पहुंचाता है।
एक ओर डीएम का कर्तव्य है कि वह जिले में सुशासन, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करे। दूसरी ओर, सीएमओ की भूमिका स्वास्थ्य सेवाओं के संचालन और संवेदनशील फैसलों को निष्पक्षता से लागू करने की होती है।
लेकिन जब दो वरिष्ठ अधिकारी सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे पर कीचड़ उछालें, तो यह न सिर्फ जनमानस में अविश्वास पैदा करता है बल्कि नीचे तक के प्रशासनिक अधिकारियों के मनोबल को भी प्रभावित करता है।
यह घटना बताती है कि यदि नियमन और अधिकारों के बीच स्पष्ट रेखा खींची न जाए, तो टकराव अपरिहार्य हो जाते हैं।
यह विवाद कानपुर जैसे बड़े शहर में चल रही स्वास्थ्य योजनाओं और सेवाओं पर सीधा असर डाल रहा।
आम आदमी यह तय नहीं कर पा रहा कि दोषी कौन है—डीएम जो जवाबदेही की बात कर रहे हैं या सीएमओ जो भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठाने का दावा कर रहे हैं।
स्वास्थ्य कर्मियों में असमंजस
कई डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के बार-बार तबादले से न सिर्फ सेवाएं प्रभावित हो रही हैं, बल्कि उनमें भविष्य को लेकर असुरक्षा का भाव भी पनप रहा है।
जब शीर्ष अधिकारी ही टकराव में उलझे हों, तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन जैसी जनहित योजनाओं की प्रगति में रुकावट आना तय है।
स्वतंत्र जांच समिति का गठन
मुख्यमंत्री को चाहिए कि इस पूरे प्रकरण की जांच के लिए स्वतंत्र और तटस्थ समिति गठित करें जिसमें प्रशासनिक, विधिक और तकनीकी विशेषज्ञ हों।
वायरल ऑडियो की AI जेनरेशन के दावे की तकनीकी सत्यता प्रमाणित करने हेतु साइबर फॉरेंसिक जांच होनी चाहिए।
डीएम और सीएमओ जैसे पदों पर आसीन अधिकारियों के लिए एक ‘संवाद प्रक्रिया’ या ‘मध्यस्थ तंत्र’ की स्थापना की जानी चाहिए, ताकि विवाद सार्वजनिक होने से पहले हल हो सकें।
शासन स्तर पर स्पष्ट गाइडलाइन बनाई जाए कि प्रशासनिक मामलों में राजनीतिक दबाव कैसे और कब स्वीकार्य है—और कब नहीं।
कानपुर में डीएम और सीएमओ के बीच चल रही यह जंग केवल दो अधिकारियों का आपसी विवाद नहीं है, बल्कि यह पूरे प्रशासनिक तंत्र के सामने एक सवालिया निशान है। क्या हमारे अफसरशाही में संवाद की कमी इतनी गहरी है कि हर असहमति विवाद में बदल जाती है? क्या तकनीक और राजनीतिक हस्तक्षेप प्रशासनिक जवाबदेही को निगल रहे हैं?
इस प्रकरण का हल केवल एक अधिकारी को हटाने या बचाने से नहीं निकलेगा। इसका समाधान एक ऐसी प्रशासनिक संस्कृति के निर्माण में है जिसमें पारदर्शिता, संवाद, और नियमों की सर्वोच्चता हो। वरना, अगली बार यह लड़ाई किसी और जिले में होगी, मगर असर हमेशा जनता पर ही पड़ेगा।