शरद कटियार
हर साल 12 जून को विश्व बाल श्रम निषेध दिवस (World Day Against Child Labour) मनाया जाता है। यह दिन हमें यह सोचने को विवश करता है कि क्या हम बच्चों को बचपन दे पा रहे हैं? क्या हमारी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था (political system) इतनी सक्षम हो पाई है कि बच्चों को मजदूरी, अत्याचार और शोषण से मुक्त किया जा सके? बाल श्रम न केवल एक कानूनी अपराध है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों और सभ्यता पर भी एक कलंक है। यह संपादकीय न केवल बाल श्रम की भयावहता को उजागर करता है, बल्कि इसके मूल कारणों, सामाजिक जिम्मेदारियों और संभावित समाधानों पर भी विस्तृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
बाल श्रम: परिभाषा और स्वरूप
बाल श्रम वह स्थिति है जिसमें कोई बच्चा — जिसे कानूनी रूप से शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए — आजीविका कमाने के लिए कार्य करता है। यह कार्य उनकी उम्र, शारीरिक क्षमता, मानसिक विकास और सामाजिक अधिकारों के प्रतिकूल होता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, 5 से 17 वर्ष की उम्र के वे सभी बच्चे जो खतरनाक काम कर रहे हैं, जिनसे उनका शारीरिक, मानसिक, नैतिक या सामाजिक विकास प्रभावित हो रहा है, वे बाल श्रमिक की श्रेणी में आते हैं।
भारत में बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 के अंतर्गत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी कार्य में लगाना अपराध माना गया है। परंतु यह केवल कागजों तक ही सीमित है। धरातल पर आज भी बाल मजदूर होटल, फैक्ट्री, खेतों, दुकानों, ईंट भट्टों, खदानों, घरेलू नौकरियों और भीख मांगने जैसे कृत्यों में लिप्त पाए जाते हैं।
बाल श्रम केवल एक आर्थिक समस्या नहीं है, यह एक सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक विफलता भी है। इसके पीछे अनेक कारक कार्य करते हैं:
यह बाल श्रम का सबसे बड़ा कारण है। जब एक परिवार का भरण-पोषण संभव नहीं हो पाता, तब माता-पिता बच्चों को मजदूरी पर लगा देते हैं। 2023 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में 21% आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है।शिक्षा की अनुपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी विद्यालयों की संख्या कम है, और जो हैं भी, वे गुणवत्ता से कोसों दूर हैं। प्राथमिक शिक्षा के प्रति उदासीनता और अव्यवस्था भी बच्चों को स्कूल से दूर कर श्रम की ओर ढकेल देती है।
अज्ञानता और परंपरागत सोच
कई परिवार यह मानते हैं कि काम करने से बच्चा ‘कमाई सीखता है’, यह उसकी ‘प्रैक्टिकल ट्रेनिंग’ है। यह सोच उन्हें बच्चे की पढ़ाई के बजाय काम कराने की दिशा में ले जाती है। बाल श्रम विरोधी कानून हैं, लेकिन उनका पालन करने वाला तंत्र लचर है। नियोक्ता सस्ते श्रम के लिए बच्चों को काम पर रखते हैं और सरकार की निगरानी एजेंसियां मौन बनी रहती हैं।
शहरीकरण और पलायन
ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन करने वाले परिवार अस्थायी रोजगार की तलाश में बच्चों को भी मजदूरी में लगा देते हैं। लंबे समय तक कठोर कार्य करने से बच्चों के शरीर पर बुरा असर पड़ता है। कई बार वे खतरनाक यंत्रों और रसायनों के संपर्क में आते हैं जिससे उनका जीवन संकट में पड़ जाता है। शिक्षा से वंचित होना मजदूरी करने वाले बच्चों के पास स्कूल जाने का समय और ऊर्जा नहीं होती। वे शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं और अशिक्षा उनके जीवन में स्थायी अभिशाप बन जाती है।
ऐसे बच्चे असुरक्षित होते हैं और तस्करों, अपराधियों व यौन शोषकों का आसान शिकार बनते हैं। ‘बाल वेश्यावृत्ति’ और ‘बाल तस्करी’ जैसे अपराध इसी की उपज हैं। बाल श्रम से जुड़ा बच्चा न तो कुशल बन पाता है, न ही जागरूक नागरिक। यह देश के मानव संसाधन की क्षति है, जो दीर्घकालिक रूप से राष्ट्र के विकास में बाधक है।
भारत में 5-14 वर्ष की आयु के अनुमानित 1 करोड़ से अधिक बच्चे बाल मजदूरी में लगे हुए हैं। हालांकि सरकार समय-समय पर जनजागरूकता अभियान, कानूनों में संशोधन, और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम चलाती है, परंतु जमीनी सच्चाई बहुत ही जटिल है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बाल मजदूरी की घटनाएं बहुत अधिक हैं। सरकारी प्रयास और उनकी सीमाएं हैँ, बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 व संशोधन 2016
इस अधिनियम के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को किसी भी प्रकार के रोजगार में लगाना अवैध है। 2016 के संशोधन में 14-18 वर्ष के किशोरों को खतरनाक कामों में लगाने पर भी रोक है। परंतु यह अधिनियम घरेलू कामकाज और पारिवारिक व्यवसाय में लगे बच्चों को छूट देता है, जो कि एक बड़ा छेद है। सर्व शिक्षा अभियान, यह शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण योजना है। हालांकि इसके बावजूद बाल श्रम की संख्या में गिरावट बहुत धीमी है। राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (NCLP), इस परियोजना के तहत बाल श्रमिकों को निकाल कर उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। लेकिन कई जिलों में यह योजना या तो बंद हो चुकी है या नाममात्र के लिए चल रही है।
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर बाल श्रम के विरुद्ध सख्त टिप्पणियां की हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1996 के एक निर्णय में कहा था कि “बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिलाना राज्य का नैतिक व संवैधानिक दायित्व है।” परंतु न्यायपालिका के आदेशों के अनुपालन की निगरानी करने वाला कोई स्वतंत्र प्राधिकरण नहीं है। भारत में कई ऐसे संगठन हैं जो बाल श्रम के विरुद्ध लगातार कार्यरत हैं, जैसे:बचपन बचाओ आंदोलन (BBA)कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित यह संगठन अब तक लाखों बच्चों को बाल श्रम और बंधुआ मजदूरी से मुक्त करा चुका है। CRY (Child Rights and You) यह संस्था बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य करती है, खासतौर पर शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के क्षेत्र में।
ये संगठन सरकार पर दबाव बनाते हैं, जनजागरूकता फैलाते हैं और कई बार जमीनी स्तर पर बच्चों को बचाने के लिए जोखिम भी उठाते हैं।सामाजिक चेतना का विकास जब तक समाज यह नहीं समझेगा कि बाल श्रम एक गंभीर अपराध है, तब तक यह कुरीति समाप्त नहीं हो सकती। हर नागरिक को सजग होना होगा और बच्चों को काम करते देख रिपोर्ट करना होगा। बच्चों को ग्राहक मत बनाओ कोई बच्चा यदि दुकान या ढाबे पर काम कर रहा है, तो उससे सेवा लेना भी एक प्रकार से अपराध में सहभागी बनना है। समाज को यह सोच बदलनी होगी।
मीडिया को बाल श्रम के मुद्दों पर गंभीर और निरंतर रिपोर्टिंग करनी चाहिए। सामाजिक विज्ञापन, फीचर स्टोरी, डॉक्यूमेंट्री आदि के माध्यम से इस मुद्दे को जनचेतना तक लाया जाना चाहिए। विद्यालयों को सतत प्रयास करना चाहिए कि वे अपने क्षेत्र के सभी बच्चों को विद्यालय में लाएं। जो बच्चे विद्यालय से छूट गए हैं, उन्हें पुनः जोड़ने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
शिक्षा का अधिकार कानून (RTE) का कड़ाई से पालन
यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि 6 से 14 वर्ष का हर बच्चा स्कूल जाए। शिक्षा को आकर्षक और प्रोत्साहित करने वाला बनाना चाहिए ताकि गरीब परिवार भी बच्चों को स्कूल भेजें।
मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा
माता-पिता को रोजगार सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा, खाद्यान्न सहायता आदि मिलने पर वे बच्चों को काम पर नहीं भेजेंगे। स्थानीय प्रशासन, बाल कल्याण समितियों और NGO को मिलकर बाल श्रम की नियमित निगरानी करनी चाहिए। बाल श्रम केवल एक कानून का उल्लंघन नहीं है, यह एक सामाजिक अपराध है। यह हमारे भविष्य — यानी बच्चों — को बचपन से वंचित कर रहा है। यह दिन केवल एक औपचारिकता नहीं होना चाहिए, बल्कि यह आत्मविश्लेषण और कर्तव्य-बोध का दिन होना चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि एक देश का वास्तविक विकास तब ही मापा जा सकता है जब उसका हर बच्चा मुस्कुराते हुए विद्यालय जाए, किताबें पढ़े, खेल खेले, और एक उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर हो।
अंततः यही प्रश्न शेष रह जाता है:
“क्या हम आने वाली पीढ़ियों को यह कह पाएंगे कि हमने उन्हें मजदूर नहीं, विद्यार्थी बनाया?”
शरद कटियार
प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया