शरद कटियार
लोकतंत्र (Democracy) की बुनियादी ताकत इस बात में निहित है कि नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति सजग बनाया जाए और उन्हें यह सुविधा दी जाए कि वे किसी भी प्रशासनिक या संस्थागत खामी के विरुद्ध आवाज़ उठा सकें। लेकिन जब यही अधिकार किसी स्वार्थ या षड्यंत्र का उपकरण बन जाए, तब यह न केवल प्रशासनिक व्यवस्था के लिए चुनौती बनता है, बल्कि सामाजिक और नैतिक मूल्यों का भी ह्रास होता है। लखनऊ विकास प्राधिकरण (LDA) द्वारा हाल ही में किया गया खुलासा इसी विकृत होते लोकतांत्रिक व्यवहार (democratic behavior) का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।
एलडीए ने 28 ऐसे लोगों की सूची सार्वजनिक की है, जिन्होंने वर्षों तक फर्जी शिकायतों के जरिए आम जनता, निर्माणकर्ताओं, मकान मालिकों और यहां तक कि प्राधिकरण के अधिकारियों को ब्लैकमेल किया। कुल 2114 फर्जी शिकायतों का यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि उस प्रणालीगत शोषण का प्रमाण है जिसमें शिकायत का माध्यम एक सामाजिक न्याय के औजार की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थ और अपराध का जरिया बन गया।
शिकायत दर्ज कराना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। यह जनता के अधिकारों की सुरक्षा और प्रशासनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक अनिवार्य माध्यम है। कोई भी व्यक्ति अगर सरकारी कामकाज से असंतुष्ट है, या किसी प्रक्रिया में अनियमितता देखता है, तो उसे यह अधिकार है कि वह उस पर सवाल उठा सके।
लेकिन जिस तरह से इन 28 व्यक्तियों द्वारा इस प्रणाली का दुरुपयोग किया गया, वह अत्यंत चिंताजनक है। शिकायतें जहां जनहित के लिए होनी चाहिए थीं, वहां उन्हें व्यक्तिगत लाभ और ब्लैकमेलिंग के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। यह मामला केवल फर्जी शिकायतों का नहीं, बल्कि एक योजनाबद्ध और संगठित अपराध का है। जब किसी संस्था में 2114 शिकायतें महज 28 व्यक्तियों द्वारा की जाएं और उनमें से अधिकांश शिकायतें आधारहीन, गलत तथ्यों पर आधारित या उद्देश्यहीन पाई जाएं, तो यह साफ हो जाता है कि इसके पीछे कोई व्यक्तिगत प्रतिशोध या आर्थिक लाभ की मंशा थी।
जांच में यह भी सामने आया कि कई शिकायतकर्ता पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता या संपादक जैसे पदनामों का उपयोग कर रहे थे। इसका तात्पर्य यह है कि वे अपने प्रभाव और सामाजिक छवि का इस्तेमाल कर दूसरों पर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे। यह न केवल पत्रकारिता जैसे पवित्र पेशे का अपमान है, बल्कि समाज में फैले उस वर्गीय भ्रष्टाचार का भी प्रतीक है, जो अपने निजी हितों की पूर्ति के लिए जनकल्याणकारी प्रक्रियाओं को ही हथियार बना देता है।
ब्लैकमेलिंग केवल आर्थिक लाभ तक सीमित नहीं रहती, वह मानसिक और सामाजिक उत्पीड़न का माध्यम भी बन जाती है। मकान मालिकों और निर्माणकर्ताओं के साथ-साथ एलडीए के कर्मियों को जिस तरह से लगातार डराया और दवाब में लेने की कोशिश की गई, उससे यह स्पष्ट होता है कि यह पूरा तंत्र किसी संगठित गिरोह की तरह कार्य कर रहा था।
कई बार फर्जी शिकायतों के डर से आम नागरिक वैध निर्माण या प्राधिकरणीय प्रक्रिया में भाग लेने से भी कतराते हैं। इससे न केवल सिस्टम पर से विश्वास उठता है, बल्कि सामाजिक व्यवस्था भी भय और अविश्वास की भावना से ग्रस्त हो जाती है। एलडीए उपाध्यक्ष द्वारा स्वयं इस पूरे मामले की जांच कराना एक सराहनीय और साहसिक कदम है। भारतीय नौकरशाही में आमतौर पर ऐसे मामलों को या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या फिर खानापूर्ति कर दी जाती है। लेकिन जब किसी उच्चाधिकारी द्वारा पारदर्शिता और जवाबदेही की भावना से प्रेरित होकर जांच कराई जाती है, तो इससे व्यवस्था में विश्वास बहाल होता है।
इस खुलासे के बाद एलडीए ने न केवल संबंधित व्यक्तियों की सूची सार्वजनिक की, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इन लोगों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई की जाएगी। भविष्य में उन्हें किसी भी प्राधिकरणीय प्रक्रिया में भाग लेने से रोका जाएगा। यह कदम पारदर्शिता की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस मामले में एक और गंभीर पहलू यह है कि फर्जी शिकायतकर्ताओं में कई ऐसे लोग भी शामिल हैं जो स्वयं को “पत्रकार” या “संपादक” बताते हैं। इससे एक बड़ा और कड़वा सच सामने आता है—वह यह कि पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को भी अब कुछ लोगों ने व्यक्तिगत हितों की पूर्ति का औजार बना लिया है।
पत्रकारों को समाज का प्रहरी माना जाता है। लेकिन जब यही प्रहरी भ्रष्टाचार का सहायक बन जाए, तो यह केवल पेशे का ही नहीं, लोकतंत्र का भी अपमान है। इसलिए ऐसे लोगों को मीडिया संगठनों और पत्रकार संगठनों से बहिष्कृत किया जाना चाहिए, ताकि असली पत्रकारों की छवि पर दाग न लगे। यह मामला समाज के लिए एक चेतावनी है। अगर हम ऐसे गलत तत्वों की पहचान नहीं करते और उन्हें खुली छूट देते हैं, तो यह प्रथा एक परंपरा बन जाएगी। फिर कोई भी ईमानदार नागरिक किसी भी प्रक्रिया में शामिल होने से पहले दस बार सोचेगा, और यही लोकतंत्र की हार होगी।
इसलिए यह जरूरी है कि एलडीए की इस पहल को केवल एक विभागीय कार्रवाई मानकर नजरअंदाज न किया जाए, बल्कि इसे एक सामाजिक जागरूकता के अभियान की तरह देखा जाए। स्कूलों, कॉलेजों, पत्रकारिता संस्थानों और सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे इस मामले का अध्ययन करें और जनजागरूकता फैलाएं कि शिकायत का अधिकार एक जिम्मेदारी भी है।
यह घटना यह भी दर्शाती है कि हमारी शिकायत निवारण प्रणाली में अब सुधार की आवश्यकता है। शिकायतों की स्क्रीनिंग और सत्यापन की एक ठोस प्रक्रिया होनी चाहिए। साथ ही फर्जी शिकायत करने वालों के खिलाफ सख्त दंडात्मक प्रावधान लागू किए जाने चाहिए। एक संभावित समाधान यह हो सकता है कि शिकायत दर्ज करने वाले को अपने व्यक्तिगत पहचान-पत्र, मकसद और साक्ष्य के साथ प्रारंभिक जवाबदेही साबित करनी पड़े। इससे बिना आधार की शिकायतें स्वतः ही रुकेंगी।
साथ ही, विभागीय स्तर पर शिकायतों की प्राथमिकता निर्धारण प्रणाली (Grievance Prioritization Mechanism) विकसित की जानी चाहिए जिसमें शिकायत की गंभीरता, सार्वजनिक हित और वैधता के आधार पर उसे जांच में लिया जाए। एलडीए द्वारा उठाया गया कदम केवल उन 28 लोगों के खिलाफ कार्रवाई तक सीमित नहीं रहना चाहिए। यह एक अवसर है कि हम शिकायत प्रणाली में सुधार करें, ईमानदार और ज़िम्मेदार नागरिकों को सुरक्षा और विश्वास दें, और ऐसे तत्वों को सख्ती से हतोत्साहित करें जो सिस्टम का दुरुपयोग कर रहे हैं।
इस पूरे प्रकरण से एक बात साफ है कि जब संस्थाएं पारदर्शिता और साहस से काम करती हैं, तो न केवल व्यवस्था में विश्वास बहाल होता है, बल्कि समाज में नैतिकता की नई लकीर भी खींची जाती है। एलडीए ने इस दिशा में एक उल्लेखनीय शुरुआत की है। अब अन्य विभागों और प्राधिकरणों को भी इसी राह पर चलना चाहिए।
फर्जी शिकायतों के जरिए ब्लैकमेलिंग करना केवल एक प्रशासनिक अपराध नहीं है, यह सामाजिक और नैतिक विकृति भी है। इस प्रवृत्ति को समाप्त करना केवल प्रशासन की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर जागरूक नागरिक का भी दायित्व है। एलडीए ने जिस तरह से इस पूरे प्रकरण को उजागर किया, वह एक मिसाल है। अब यह ज़रूरी है कि इसे समाज और शासन दोनों के लिए एक सबक की तरह लिया जाए। अगर हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ एक ईमानदार, पारदर्शी और जवाबदेह प्रणाली में विश्वास कर सकें, तो हमें ऐसे उदाहरणों को सहेजना और प्रचारित करना होगा। केवल कानून ही नहीं, सामाजिक चेतना ही इस बीमारी की असली दवा है।
शरद कटियार
प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया