शरद कटियार
भारत एक युवा देश है। 65 प्रतिशत से अधिक आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। यह जनसांख्यिकीय (demographic) स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए वरदान हो सकती है, बशर्ते उसके पास एक सशक्त शिक्षा व्यवस्था, रोजगार के समुचित अवसर और एक नियंत्रित महंगाई व्यवस्था हो। दुर्भाग्यवश, भारत (India) इन तीनों मोर्चों पर चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है। शिक्षा व्यवस्था (education system) में गिरावट, रोजगार का संकट और बढ़ती महंगाई एक त्रिकोणीय संकट की तरह आम जनमानस को झकझोर रहा है।
यह संपादकीय विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से भारत की शिक्षा व्यवस्था, बेरोजगारी और महंगाई की समस्या का आकलन करता है, इनके बीच के संबंधों को उजागर करता है, और संभावित समाधान सुझाने का प्रयास करता है। भारत की शिक्षा व्यवस्था आज भी रटंत विद्या और अंक आधारित मूल्यांकन पद्धति पर आधारित है। विद्यार्थियों को नौकरी के योग्य स्किल्स नहीं दिए जाते बल्कि उन्हें परीक्षा पास करने की रणनीति सिखाई जाती है। परिणामस्वरूप डिग्रीधारी युवा बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश रोजगार के लायक नहीं माने जाते।
सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी है। कई राज्यों में एक ही शिक्षक कई विषय पढ़ाने को मजबूर है। कई स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं जैसे शौचालय, पेयजल, पुस्तकालय या कंप्यूटर लैब तक उपलब्ध नहीं हैं। यह स्थिति ग्रामीण भारत में और भी खराब है। देश के प्रतिष्ठित संस्थानों (जैसे IIT, IIM, AIIMS) में सीमित सीटें हैं और प्रवेश प्रक्रिया अत्यंत प्रतिस्पर्धी है। दूसरी ओर अधिकांश निजी विश्वविद्यालय अत्यधिक फीस वसूलते हैं, जिससे निम्न व मध्यम वर्ग के छात्र गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
नई शिक्षा नीति में कुछ सराहनीय पहलें की गई हैं, जैसे बहु-विषयक अध्ययन, स्थानीय भाषा में शिक्षा, और व्यावसायिक शिक्षा पर ज़ोर। किंतु इस नीति का जमीनी क्रियान्वयन अभी भी असमंजस में है। शिक्षकों को प्रशिक्षित करना, पाठ्यक्रमों का उन्नयन, और बुनियादी ढांचे का विकास – इन पर केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर ठोस कार्य करना होगा।
सरकार के स्वयं के आंकड़े बताते हैं कि देश में करोड़ों युवा स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्री लेकर बेरोजगार घूम रहे हैं। एक चौंकाने वाली स्थिति यह है कि पीएचडी किए हुए युवा भी चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। भारत की जीडीपी भले बढ़ रही हो, लेकिन “जॉबलेस ग्रोथ” की स्थिति बनी हुई है। उत्पादन क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) में रोजगार घट रहे हैं। कृषि अब भी सबसे अधिक रोजगार देने वाला क्षेत्र है, लेकिन वहां भी आय और सुरक्षा का अभाव है। सरकारी नौकरियों की भर्तियों में वर्षों लग जाते हैं। कहीं परीक्षा ही नहीं होती, तो कहीं परीक्षा होकर भी परिणाम घोषित नहीं होते। कई बार पेपर लीक हो जाते हैं, जिससे युवाओं में हताशा और आक्रोश उत्पन्न होता है।
निजी क्षेत्र भी युवाओं को स्थायी रोजगार देने से बचता है। कॉन्ट्रैक्ट आधारित नौकरियां और अस्थायी जॉब्स से युवा असुरक्षित और मानसिक तनाव में रहते हैं। पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस की कीमतें पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी हैं। इसके सीधा असर परिवहन और खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर पड़ा है। दाल, आटा, सब्जी, दूध जैसी दैनिक आवश्यकताएं अब गरीब ही नहीं, मध्यम वर्ग को भी भारी पड़ रही हैं।
बढ़ती महंगाई के अनुपात में वेतन या आय नहीं बढ़ रही। निजी क्षेत्र में तो महंगाई भत्ता तक नहीं दिया जाता। ऐसे में मध्यम वर्ग की जीवनशैली पर संकट आ गया है। वहीं असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत और भी दयनीय है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं पहले मुफ्त या सस्ती हुआ करती थीं, लेकिन आज ये क्षेत्र निजीकरण की चपेट में आकर अत्यधिक महंगे हो गए हैं। आम आदमी की कमाई का बड़ा हिस्सा इन जरूरतों पर खर्च हो जाता है।
जब शिक्षा व्यवस्था युवाओं को हुनर नहीं देती, तो वे रोजगार पाने में असमर्थ रहते हैं। यही कारण है कि देश में लाखों पद खाली हैं, लेकिन योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते। स्किल गैप (कौशल-अंतर) देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा संकट है। जब युवा बेरोजगार रहते हैं या अल्पवेतन पर काम करते हैं, तो उनकी क्रयशक्ति घटती है। इससे बाजार में मांग नहीं बढ़ती, जिससे अर्थव्यवस्था सुस्त हो जाती है। बेरोजगारी का सीधा असर देश के आर्थिक विकास पर पड़ता है।
जब महंगाई बढ़ती है, तो गरीब और मध्यम वर्ग अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च नहीं कर पाते। वे अच्छी स्कूलों या कोचिंग में नहीं भेज पाते, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है। वहीं, बेरोजगार युवा परिवार पर आर्थिक बोझ बन जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर स्किल-आधारित शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए। शिक्षक प्रशिक्षण और नियुक्ति पारदर्शी और सशक्त हो। सरकारी विद्यालयों में डिजिटल संसाधनों और मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था की जाए। नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन निगरानी और जवाबदेही के साथ हो।
MSME सेक्टर (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों) को बढ़ावा देकर बड़े पैमाने पर रोजगार उत्पन्न किए जा सकते हैं। स्टार्टअप्स और नवाचारों को वित्तीय सहायता और मेंटरशिप दी जाए। सरकारी नौकरियों की भर्तियों को समयबद्ध और पारदर्शी बनाया जाए। मेक इन इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’ जैसे अभियानों को जमीनी स्तर पर लागू किया जाए।
बिचौलियों पर नियंत्रण और ई-कॉमर्स/मंडी सिस्टम का आधुनिकीकरण कर किसानों से उपभोक्ता तक सीधी आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। वस्तु एवं सेवा कर (GST) की दरों में समीक्षा कर आवश्यक वस्तुओं पर टैक्स में राहत दी जाए। राशन प्रणाली का सुदृढ़ीकरण, ताकि गरीबों को सब्सिडी युक्त आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध हों।
शिक्षा, बेरोजगारी और महंगाई – ये तीनों मुद्दे परस्पर जुड़े हुए हैं और भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे की रीढ़ हैं। इन पर केवल योजनाएं बनाकर, घोषणाएं करके या आंकड़ों की बाजीगरी से पार नहीं पाया जा सकता। सरकारें, समाज और नीति निर्माता मिलकर कार्य करें, तो भारत न केवल विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ेगा, बल्कि “विकास के साथ न्याय” की परिकल्पना को भी साकार कर सकेगा।
शरद कटियार
प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया