भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में भाषा और प्रतीकों का गहरा प्रभाव रहा है। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस (TMC) के नेता और पश्चिम बंगाल के मंत्री उदयन गुहा द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर की गई टिप्पणी—”जो चाय बेचते थे, वो अब सिंदूर बेच रहे हैं”—ने न केवल सियासी गलियारों में हलचल मचा दी, बल्कि राजनीतिक मर्यादा पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। यह बयान ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में आया, जो पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र में एक सैन्य कार्रवाई से जुड़ा है। सवाल अब बयान पर नहीं, बल्कि पूरे राजनीतिक विमर्श के गिरते स्तर और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों के राजनीतिकरण पर उठने चाहिए।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ को केंद्र सरकार ने एक सफल सैन्य मिशन बताया है, जिसे देश की सैन्य रणनीति और कूटनीतिक कौशल की बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्र की रक्षा और आतंकवाद के खिलाफ मजबूत कार्रवाई बताया, तो भाजपा नेताओं ने इसे चुनावी सभाओं में गूंजते हुए राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बना दिया।
उदयन गुहा के बयान में ‘सिंदूर’ का प्रयोग, भाजपा द्वारा इस अभियान को महिलाओं और धार्मिक प्रतीकों से जोड़ने पर तंज के रूप में देखा गया, लेकिन जिस प्रकार से यह टिप्पणी की गई—वह असंवेदनशील, अमर्यादित और राजनीतिक शिष्टाचार के खिलाफ है।
भाजपा ने पलटवार करते हुए इसे सेना और देशभक्ति का अपमान बताया। पार्टी के प्रवक्ताओं ने टीएमसी पर देश की रक्षा से जुड़े विषयों का मज़ाक उड़ाने और राजनीति को घटिया स्तर तक ले जाने का आरोप लगाया। वहीं, टीएमसी ने बयान से किनारा करते हुए इसे व्यक्तिगत टिप्पणी बताया, लेकिन साथ ही भाजपा पर राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी औजार बनाने का आरोप भी मढ़ दिया।
प्रधानमंत्री मोदी को ‘चायवाला’ कहना कोई नया व्यंग्य नहीं है। विपक्ष लंबे समय से उनके साधारण पृष्ठभूमि को नीचा दिखाने की कोशिश करता आया है, लेकिन समय ने यह दिखा दिया है कि जनता ने बार-बार मोदी की इसी छवि को पसंद किया।
अब जब ‘सिंदूर’ जैसे प्रतीक—जो भारतीय समाज में स्त्री सम्मान, श्रद्धा और पवित्रता का द्योतक हैं—का राजनीतिकरण हो रहा है, तो यह न केवल महिला भावनाओं का उपयोग है, बल्कि भारतीय संस्कृति के भावात्मक प्रतीकों को वोट पाने के हथियार में बदल देने का खतरनाक चलन भी है।
इंडियन नेशनल लोक दल (INLD) की नेत्री सुनैना चौटाला ने भी ‘एक महिला, एक सिंदूर’ का जिक्र करते हुए भाजपा के अभियान पर सवाल खड़े किए। उन्होंने कहा कि सिंदूर एक स्त्री की मर्यादा और विश्वास का प्रतीक है, इसे राजनीतिक अभियानों में उपयोग करना निंदनीय है।
उदयन गुहा का बयान इस बात का उदाहरण है कि राजनीतिक विमर्श किस दिशा में जा रहा है। जब राजनीतिक बहस मुद्दों से भटककर निजी कटाक्ष और प्रतीकों के तिरस्कार तक आ जाती है, तो लोकतंत्र का मूल उद्देश्य—जनहित में विमर्श—गंभीर रूप से प्रभावित होता है।
यह पहली बार नहीं है जब नेताओं ने मर्यादा की सीमा पार की हो। लेकिन विडंबना यह है कि ऐसी टिप्पणियाँ मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से तेजी से फैलती हैं और जनता के राजनीतिक सोच पर दीर्घकालिक असर डालती हैं।
यह भी विचारणीय है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों को लेकर बयानबाजी केवल राजनीतिक लाभ के लिए की जानी चाहिए? क्या यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की नहीं कि सेना और कूटनीतिक मिशनों को राजनीति से दूर रखें?
सवाल उठता है कि जब कोई पार्टी सैन्य ऑपरेशन का श्रेय राजनीतिक लाभ के लिए लेती है और दूसरी पार्टी उसका उपहास करती है, तो असल नुकसान किसका होता है? नुकसान सेना के मनोबल का, राष्ट्रीय एकता का और सबसे अहम, आम नागरिक के विश्वास का।
सेना कोई राजनीतिक संस्था नहीं है। वह राष्ट्र की रक्षा के लिए है। इसलिए उसका उपयोग या उपहास—दोनों ही आपत्तिजनक हैं। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि वोट भले चुनाव से मिलते हों, लेकिन देश की रक्षा में किए गए बलिदान राजनीति से ऊपर होते हैं।
उदयन गुहा का यह बयान इस बात का प्रतीक बन गया है कि हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जहां संवेदनशील विषयों और सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है। एक ओर जब सत्ता पक्ष राष्ट्रभक्ति की आड़ में अपनी रणनीतियों को महिमामंडित करता है, वहीं विपक्ष उसे तंज और उपहास का माध्यम बना देता है।
राजनीति में आलोचना का स्थान है, लेकिन उसमें गरिमा होनी चाहिए। प्रधानमंत्री के खिलाफ तीखी आलोचना करना किसी भी विपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन उसकी भाषा इतनी असंवेदनशील हो कि वह राष्ट्र या संस्कृति के प्रतीकों को ठेस पहुंचाए—यह निंदनीय है।
वक्त आ गया है जब सभी राजनीतिक दल, खासकर उनके प्रवक्ता और नेता, आत्ममंथन करें। यह समझें कि जनप्रतिनिधियों की भाषा और विचार न केवल पार्टी की छवि बनाते हैं, बल्कि लोकतंत्र की गुणवत्ता भी तय करते हैं।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर हो रही बहस इस बात की प्रतीक बन चुकी है कि भारतीय राजनीति अब प्रतीकों, भावनाओं और मीडिया नैरेटिव्स पर आधारित हो गई है। यह चिंता का विषय है। ऐसे समय में जबकि देश गंभीर सामाजिक, आर्थिक और कूटनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा है, नेताओं से उम्मीद की जाती है कि वे मुद्दों की बात करें—ना कि तंज और कटाक्षों से लोकतंत्र का उपहास बनाएं।
भारतीय राजनीति को नये विमर्श की जरूरत है—ऐसा विमर्श जो गरिमा, ज्ञान और जिम्मेदारी के साथ हो। जहां प्रधानमंत्री को आलोचना का सामना करना पड़े, तो वह तथ्यों और नीतियों पर हो; और जहां विपक्ष बोल रहा हो, तो वह राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर बोले।
क्योंकि लोकतंत्र का मूल्य सिर्फ चुनाव जीतने में नहीं, बल्कि जनता का विश्वास बनाए रखने में है।