जब भारतीय समाज में सामाजिक क्रांति और समानता की बात होती है, तो डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित दिखाई देता है। वे एक महान विचारक, विधिवेत्ता और सामाजिक सुधारक थे, जिन्होंने दलितों, शोषितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए अपने जीवन की हर सांस को समर्पित किया। लेकिन इस प्रकाशमयी यात्रा के पीछे एक स्तंभ था, जो हमेशा शांत, दृढ़ और अदृश्य बना रहा – वह थीं माता रमाबाई आंबेडकर।
आज उनकी पुण्यतिथि पर हम उन्हें नमन करते हुए न केवल उनकी स्मृति को संजोते हैं, बल्कि उनके जीवन से सीख लेते हैं। उनका जीवन एक ऐसी स्त्री की गाथा है, जिसने हर परिस्थिति में अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया, बिना किसी अपेक्षा के, केवल अपने पति और समाज के लिए।
रमाबाई का जन्म 1897 में एक अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही अभाव, भूख और संघर्ष को देखा और झेला। कम उम्र में ही उनका विवाह भीमराव आंबेडकर से हुआ। तब शायद किसी को भी यह नहीं पता था कि यह दंपती आने वाले समय में भारत के सामाजिक इतिहास में अमिट छाप छोड़ेगा। रमाबाई एक अशिक्षित महिला थीं, लेकिन उनमें जो धैर्य, त्याग और विवेक था, वह किसी शिक्षित और सशक्त महिला से कम न था।
उन्होंने अपनी सीमित शिक्षा और अनुभव के बावजूद, अपने पति के महान उद्देश्य को समझा और उसमें सहभागी बनीं। जब डॉ. आंबेडकर उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका और फिर लंदन गए, तब रमाबाई भारत में अकेली रहीं। जीवन की अत्यधिक कठिनाइयों और आर्थिक अभावों के बावजूद उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। एक तरफ जहाँ आम पत्नी अपने पति की अनुपस्थिति में असहाय महसूस करती, वहीं रमाबाई ने दृढ़ता से जीवन की चुनौतियों का सामना किया। उन्होंने न केवल घर को संभाला, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से डॉ. आंबेडकर को हर मोर्चे पर सहयोग दिया। उनका त्याग ही था जिसने डॉ. आंबेडकर को निडर होकर सामाजिक आंदोलनों और शैक्षणिक लक्ष्यों को प्राप्त करने की शक्ति दी। रमाबाई के जीवन में पीड़ा की कोई कमी नहीं थी।
उन्हें चार संतानों में से तीन को खोने का दुख सहना पड़ा। केवल यशवंत ही जीवित रह सके। यह दुःख किसी भी मां को तोड़ सकता था, परंतु रमाबाई ने इसे ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार किया। उन्होंने कभी अपने पति के संघर्षों में व्यवधान नहीं आने दिया। स्वयं का स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया, लेकिन उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। वे अपनी पीड़ा को मौन का आवरण देकर, अपने पति के लिए शक्ति बनकर रहीं।
रमाबाई कभी मंच पर नहीं आईं, उन्होंने भाषण नहीं दिए, आंदोलनों की अगुवाई नहीं की, लेकिन उनके मौन ने डॉ. आंबेडकर को वह शक्ति दी, जिससे उन्होंने छुआछूत, जाति-व्यवस्था और असमानता जैसी सामाजिक बुराइयों से जूझने का संकल्प लिया। उनकी भूमिका किसी नींव की तरह थी, जो दिखाई तो नहीं देती, लेकिन जिस पर पूरे समाज का पुनर्निर्माण टिका हुआ था। उन्होंने यह साबित किया कि त्याग और समर्पण भी सामाजिक क्रांति के महत्वपूर्ण आधार हो सकते हैं। आज जब हम महिला सशक्तिकरण, समानता और स्वावलंबन की बात करते हैं, तो रमाबाई आंबेडकर का जीवन एक उदाहरण बनकर सामने आता है।
उन्होंने बिना किसी अधिकार की मांग किए, अपने कर्तव्यों का पालन किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमिट आदर्श स्थापित किया। उनकी कहानी हर उस महिला के लिए प्रेरणा है, जो सीमित संसाधनों में भी अपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण बना सकती है।
रमाबाई जी ने दिखा दिया कि सच्ची ताकत बाहर नहीं, भीतर होती है – वह ताकत जो परिवार, समाज और देश के लिए मौन समर्पण से भी क्रांति का कारण बन सकती है। आज उनकी पुण्यतिथि पर हम केवल उन्हें श्रद्धांजलि नहीं अर्पित करते, बल्कि यह संकल्प लेते हैं कि हम उनके मूल्यों को आत्मसात करेंगे – त्याग, समर्पण और संघर्ष। हम यह प्रण लेते हैं कि समाज में हर महिला को सम्मान, समान अवसर और आत्मनिर्भरता का अधिकार दिलाने के लिए प्रयासरत रहेंगे, ताकि रमाबाई जैसी और भी अनेक प्रेरणाएँ जन्म ले सकें। रमाबाई आंबेडकर की स्मृति को शत-शत नमन।
लेखक:– दैनिक यूथ इंडिया के प्रधान संपादक हैं।