भारत एक ऐसा देश है जिसकी विविधता उसकी पहचान है। यहाँ अनेक धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में रहती हैं। इसी विविधता में एकता को बनाए रखना ही सामाजिक सौहार्द का मूल आधार है। इस सम्पादकीय में हम विशेष रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता और सामाजिक सौहार्द के महत्व, चुनौतियाँ और समाधान के उपायों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
भारत के इतिहास में हिन्दू-मुस्लिम एकता की अनेक मिसालें हैं। चाहे वह स्वतंत्रता संग्राम हो, जिसमें महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे नेताओं ने मिलकर देश को आज़ाद कराने में योगदान दिया, या फिर साहित्य, संगीत और कला के क्षेत्र में प्रेम और समन्वय की परंपरा रही हो। सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने समाज में धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध प्रेम और भाईचारे का संदेश दिया।
हाल के वर्षों में भारत में धार्मिक ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएँ चिंता का विषय बन चुकी हैं। यह स्थिति केवल कुछ असामाजिक तत्वों के कारण नहीं, बल्कि राजनैतिक स्वार्थ, सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाले कंटेंट, और शिक्षा की कमी के कारण भी उत्पन्न होती है। समाज के दोनों वर्गों में विश्वास की कमी और संवादहीनता भी इन समस्याओं को बढ़ावा देती है।
सामाजिक सौहार्द के बिना किसी भी राष्ट्र में स्थायी शांति नहीं रह सकती। धर्मों के बीच आपसी समझ और सहयोग देश की आंतरिक सुरक्षा को भी मजबूती प्रदान करता है।जहाँ सामाजिक तनाव होता है वहाँ निवेश, व्यापार और शिक्षा जैसी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। एक सौहार्दपूर्ण समाज आर्थिक विकास को गति देता है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और धर्म की आज़ादी का अधिकार देता है। सामाजिक सौहार्द उसी संविधानिक मूल्यों की पूर्ति है। धार्मिक कट्टरता और अफवाहें: धार्मिक असहिष्णुता, झूठी खबरें और अफवाहें समाज में तनाव फैलाती हैं। सोशल मीडिया का अनुचित उपयोग इसमें प्रमुख भूमिका निभाता है।कुछ राजनीतिक दल और संगठन धार्मिक विभाजन को वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं। इससे समाज में स्थायी खाई बन जाती है। अनेक लोग आज भी धार्मिक रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों के शिकार हैं।
उनके पास समाज को समझने और आलोचनात्मक सोच विकसित करने का अवसर नहीं होता। हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच परस्पर संवाद की कमी आपसी विश्वास को कम करती है। बिना बातचीत के गलतफहमियाँ बढ़ती हैं।स्थानीय स्तर पर सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ाने के लिए कार्यशालाएं, सेमिनार, आपसी भोज और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। स्कूलों और कॉलेजों में ऐसे पाठ्यक्रम लागू किए जाएं जो सभी धर्मों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दें। गैर-सरकारी संगठन और समाजसेवी संस्थाएँ हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए विशेष पहल करें। धार्मिक नेताओं को भी इस दिशा में आगे आना चाहिए। मीडिया को अपनी भूमिका सकारात्मक बनानी चाहिए। नफरत फैलाने वाली खबरों से बचते हुए ऐसे कार्यक्रम और कहानियाँ प्रस्तुत करनी चाहिए जो प्रेम और एकता को बढ़ावा दें।पुलिस और प्रशासन को सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। साम्प्रदायिक घटनाओं पर त्वरित और निष्पक्ष कार्रवाई से विश्वास बढ़ता है।
अयोध्या में दीपोत्सव जैसे आयोजनों में मुस्लिम कलाकारों की भागीदारी एक अच्छा संकेत है।
रमजान में हिन्दू युवकों द्वारा मुस्लिम भाइयों को इफ्तार कराना और ईद पर एक-दूसरे को गले लगाना अभी भी भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को दर्शाता है।
वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास मुस्लिम दुकानदारों की दुकानें यह दर्शाती हैं कि धार्मिक स्थलों के आसपास भी आपसी विश्वास कायम है।
भारत की आत्मा उसकी एकता में बसती है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही इस देश के अभिन्न अंग हैं। अगर कोई एक कमजोर होता है तो पूरा देश कमजोर होता है। इसलिए हमें यह समझना होगा कि सौहार्द केवल किसी विशेष अवसर या पर्व तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बनना चाहिए।
हमें एक ऐसे भारत की कल्पना करनी चाहिए जहाँ धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति की सीमाएँ लोगों को बाँटने का नहीं, बल्कि जोड़ने का कार्य करें। एक ऐसा भारत जहाँ मंदिर और मस्जिद के बीच नहीं, बल्कि दिलों के बीच दूरी मिटे।
हिन्दू-मुस्लिम एकता को मजबूत करना केवल एक सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की अनिवार्य शर्त है। आइए, हम सब मिलकर इस दिशा में ठोस कदम उठाएँ और भारत को एक सशक्त, शांतिपूर्ण और प्रगतिशील राष्ट्र बनाएं।