– जब सत्ता के प्रतिनिधि ही अपराध को संरक्षण देने लगें तो नीति खो देती है धार
शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि एक सख्त प्रशासक और अपराध के प्रति जीरो टॉलरेंस नीति के प्रतीक के रूप में स्थापित हुई है। उन्होंने अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही इस बात का ऐलान किया था कि प्रदेश में अपराध, भ्रष्टाचार और माफिया राज को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उनके नेतृत्व में राज्य सरकार ने अनेक कुख्यात अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई की, अवैध संपत्तियां ध्वस्त की गईं, और अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे भेजा गया। लेकिन हाल के घटनाक्रमों ने इस नीति की साख पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
फर्रुखाबाद जिले की भोजपुर विधानसभा से विधायक नरेंद्र सिंह राठौर पर लगे आरोप इस बात की गवाही दे रहे हैं कि जब सत्ताधारी दल के ही कुछ जनप्रतिनिधि अपराधियों के संरक्षण में लग जाएं, तो जीरो टॉलरेंस की नीति केवल नारा बनकर रह जाती है। आरोप यह हैं कि विधायक राठौर न केवल समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान आतंक फैलाने वाले अपराधियों की खुली पैरवी कर रहे हैं, बल्कि वर्तमान सरकार के सबसे बड़े विरोधी माने जाने वाले एक चर्चित माफिया को भी अंदरखाने मदद पहुंचा रहे हैं।
यह स्थिति केवल चिंता का विषय नहीं है, बल्कि राज्य सरकार की नीयत और कार्यप्रणाली पर भी बड़ा सवाल खड़ा करती है।
फर्रुखाबाद का भोजपुर क्षेत्र कभी समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अपराध और राजनीतिक गठजोड़ का प्रतीक माना जाता था। कई स्थानों पर सरकारी योजनाएं रुकी रहती थीं, पंचायतें बंधक जैसी स्थिति में थीं, और स्थानीय लोगों में भय का वातावरण व्याप्त था। इन्हीं हालातों में कई स्थानीय गुंडे तत्वों ने सियासी संरक्षण के चलते न केवल आतंक फैलाया, बल्कि स्वयं को “स्थानीय नेता” के रूप में स्थापित भी किया।
वर्तमान में भाजपा विधायक नरेंद्र सिंह राठौर पर आरोप है कि वे उन्हीं पुराने चेहरों को पुनः सक्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं। सूत्र बताते हैं कि उन्होंने कई ऐसे लोगों की पैरवी की है जिन पर संगीन आपराधिक मामले दर्ज हैं। वे उन्हें पंचायत, नगर निकाय और ठेकेदारी में भागीदारी दिलवाने की कोशिश कर रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि या तो विधायक स्वयं जीरो टॉलरेंस नीति से असहमत हैं, या उन्हें पूरी तरह से खुली छूट प्राप्त है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “जो अपराध करेगा, वह बख्शा नहीं जाएगा – चाहे वह कोई भी हो।” लेकिन जब सत्ता पक्ष का ही कोई विधायक आरोपों के घेरे में आता है और पार्टी या प्रशासनिक स्तर पर उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती, तो यह नीति खोखली प्रतीत होती है।
यदि सत्ताधारी दल की छवि को स्वच्छ बनाए रखना है, तो केवल विरोधी दलों के नेताओं पर कार्रवाई करने से बात नहीं बनेगी। जनता यह भली-भांति देख रही है कि एक ओर माफिया अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी जैसे चेहरों पर कार्रवाई होती है, वहीं दूसरी ओर अपने ही दल के “संकटमोचनों” को खुली छूट दी जा रही है।
भोजपुर के मामले में हैरत की बात यह भी है कि भाजपा संगठन की ओर से भी कोई स्पष्ट बयान सामने नहीं आया है। पार्टी के ज़िला से लेकर प्रदेश स्तर तक के नेता इन घटनाओं को या तो नज़रअंदाज़ कर रहे हैं या मौन साधे बैठे हैं। यह चुप्पी भाजपा के नैतिक दावों को कमजोर करती है।
क्या पार्टी ने अपनी ‘संघर्षशील और नैतिक’ राजनीति को केवल मंचीय भाषणों तक सीमित कर दिया है? अगर पार्टी नेतृत्व वास्तव में भ्रष्टाचार और अपराध के खिलाफ है, तो उन्हें अपने नेताओं के खिलाफ भी उसी कठोरता से पेश आना होगा, जैसा वे विपक्ष के नेताओं के साथ करते हैं।
स्थानीय प्रशासन पर भी सवाल उठ रहे हैं। जब किसी विधायक द्वारा खुलेआम विवादित व्यक्तियों को संरक्षण दिया जाता है, तो पुलिस, एसडीएम, डीएम और संबंधित एजेंसियों की क्या भूमिका रह जाती है? क्या वे आंख मूंदकर आदेशों का पालन कर रहे हैं या भय के चलते कार्यवाही से बचते हैं?
प्रशासनिक स्वतंत्रता और ईमानदारी तब ही सच्ची साबित होती है जब वह सत्ता पक्ष के गलत कार्यों के खिलाफ भी खड़ा हो सके। यदि ऐसा नहीं हो पा रहा, तो फिर यह शासन तंत्र महज एक सियासी उपकरण बनकर रह जाएगा।
समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर कुछ हल्की टिप्पणियां की हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस राजनीतिक रणनीति सामने नहीं आई है। जब भाजपा के विधायक पर गंभीर आरोप लग रहे हैं, तो यह विपक्ष के लिए सशक्त अवसर हो सकता था कि वे मुख्यमंत्री से सीधा सवाल करते – “क्या यही है आपका जीरो टॉलरेंस?”
लेकिन दुर्भाग्यवश, उत्तर प्रदेश में विपक्ष आज भी पूर्णरूपेण प्रभावी भूमिका में नहीं आ पा रहा है। यदि वे जनता की आवाज़ को प्रभावशाली रूप से नहीं उठा पा रहे, तो यह लोकतंत्र के लिए एक और विडंबना है।
यूथ इन्डिया ने इस विषय को उठाया, लेकिन प्राइम टाइम पर यह मुद्दा अभी तक नहीं पहुंच पाया है। क्या वजह है कि जब मुख्यमंत्री की नीति की नींव हिलती दिख रही है, तो ज़िम्मेदार मौन है?
क्या सत्ता की नजदीकी, विज्ञापन और भय ने पत्रकारिता को बंधक बना लिया है? अगर मीडिया स्वतंत्र रूप से सत्ता के बदले चेहरे को उजागर नहीं करेगा, तो जनता तक सच्चाई कैसे पहुंचेगी?
आम जनता के लिए यह पूरी स्थिति बेहद हताशाजनक है। उन्हें जिन लोगों ने भरोसे के साथ चुना था, वे यदि अपराधियों के संरक्षक बन जाएं, तो जनता को कहां से न्याय मिलेगा?
क्या यह वही रामराज्य है जिसका सपना दिखाकर सत्ता में आए थे योगी आदित्यनाथ?
क्या यह वही उत्तर प्रदेश है जिसे भयमुक्त और भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की कसम खाई गई थी?
जब ज़मीन पर सच्चाई इससे उलट दिखती है, तो जनता का भरोसा तंत्र से उठना स्वाभाविक है।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीति अब नीयत के सवाल में तब्दील होती जा रही है। अगर सरकार वाकई में अपराध के खिलाफ है, तो उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह अपने लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई कर सकती है।
नागेंद्र सिंह राठौर जैसे जनप्रतिनिधियों पर लगे आरोपों की निष्पक्ष जांच जरूरी है।
अगर सरकार इसे भी विपक्ष की साजिश या मीडिया की सनसनी कहकर नकारती है, तो यह लोकतंत्र के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण संदेश होगा।
अंततः यह याद रखना होगा कि कानून की मर्यादा सभी पर एक समान लागू होनी चाहिए – फिर वह विधायक हो या आम नागरिक। वरना ‘जीरो टॉलरेंस’ सिर्फ एक जुमला बनकर रह जाएगा।