उत्तर प्रदेश की 69 हजार शिक्षक भर्ती सिर्फ एक प्रतियोगी परीक्षा का मामला नहीं है, बल्कि लाखों युवाओं के भविष्य से जुड़ा हुआ सवाल है। वर्षों की मेहनत, संघर्ष और इंतजार के बाद भी अभ्यर्थियों को न्याय की चौखट पर भटकना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई टल रही है और सरकार की ओर से ठोस पैरवी न होने की शिकायतें सामने आ रही हैं।
लखनऊ में अभ्यर्थियों का प्रदर्शन इसका प्रमाण है कि उनकी उम्मीदें टूट रही हैं। डिप्टी मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के आवास तक पहुंचने की कोशिश और पुलिस द्वारा रोककर उन्हें ईको गार्डन भेजना इस बात का संकेत है कि आंदोलन धीरे-धीरे और बड़ा रूप ले सकता है। इससे पहले वे शिक्षा मंत्री संदीप सिंह के आवास का घेराव कर चुके हैं। यह साफ बताता है कि अभ्यर्थियों का धैर्य जवाब दे रहा है।
सरकार का यह कहना कि “मामला अदालत में विचाराधीन है” अपने आप में पर्याप्त नहीं है। सवाल यह है कि क्या राज्य सरकार ने ईमानदारी से अभ्यर्थियों के पक्ष को कोर्ट में रखने की तैयारी की है? क्या यह उचित नहीं होता कि सरकार खुद पहल करके सुप्रीम कोर्ट में शीघ्र सुनवाई की मांग करती और अभ्यर्थियों का विश्वास जीतती?
युवा वर्ग ही किसी भी समाज और राज्य का आधार होता है। यदि वही निराश और हताश हो जाए तो इसके गंभीर सामाजिक परिणाम सामने आते हैं। यह सिर्फ नौकरी का संघर्ष नहीं है, बल्कि भरोसे की लड़ाई है।
सरकार को चाहिए कि वह अभ्यर्थियों की आवाज सुने, उनकी पीड़ा को समझे और न्याय की प्रक्रिया को तेज करने के लिए ठोस कदम उठाए। अन्यथा यह आंदोलन केवल राजधानी की सड़कों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे प्रदेश की राजनीतिक धड़कनों को प्रभावित करेगा।
अब वक्त है कि सरकार यह साबित करे कि उसकी प्राथमिकता सिर्फ घोषणाएं नहीं, बल्कि युवाओं का भविष्य भी है।
69 हजार शिक्षक भर्ती: उम्मीदें, आक्रोश और सरकार की चुप्पी
